Published: 27 Feb 2022, 8:30 PMगुजरात दंगों को 20 साल हो चुके हैं। इस दौरान क्या हुआ और एक समाज के तौर पर हम कहां हैं, इस पर गौर करना जरूरी है जिससे अंदाजा लग सके कि हम किस ओर जा रहे हैं। एक तो, ज्यादातर लोगों ने सबकुछ ‘जज्ब’ कर लेना बेहतर समझा और जिन्होंने इंसाफ पाने की राह पर चलने का फैसला किया, अब उनके कदम भी थकने लगे हैं। लेकिन एक समाज, एक देश के तौर पर आज हम किस मुकाम पर हैं, यह देखना जरूरी है। पीढ़ियों के लिए अपने बेपनाह दर्द का बोझ उठाए जिंदगी को आगे बढ़ाना कितना मुश्किल हो सकता है, यह...
अहसान जाफरी साहब के अवशेष भी चौथे दिन उनके घर के सामने से इकट्ठा किए गए थे। वह आम लोगों में बेहद लोकप्रिय थे। गुलबर्ग सोसाइटी के लोगों को भरोसा था कि जब भी कोई मुसीबत आएगी तो वह इंसान उनकी हिफाजत करेगा, जैसा उन्होंने पहले हुए दंगों के दौरान तमाम मौकों पर किया भी था। सौ से ज्यादा लोग अहसान साहब के घर पर जा छिपे थे, उन्हें यकीन था कि यही वह जगह है जहां उनकी जान को खतरा नहीं। लेकिन इस बार लोगों का वह भरोसा टूटने वाला था और इसका अंदाजा दोपहर बाद 2.
28 फरवरी को दोपहर 3 बजे पुलिस कमिश्नर के दफ्तर से महज तीन किलोमीटर दूर अहसान जाफरी की दिन-दहाड़े हत्या कर दी जाती है और यह गुजरात के मुसलमानों को अकेला छोड़ देने की मिसाल बन गया। दरअसल, उसके बाद से 2002 तरह-तरह से हमारे सामने आता रहा है और हकीकत यह है कि 2014 के बाद गुजरात की 2002 की उस ‘मिसाल’ ने तकरीबन पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।
करीब 20 साल बाद दिसंबर, 2021 में जब मुसलमानों के नरसंहार की निर्लज्ज अपील की जाती है तो भारत का सत्तारूढ़ राजनीतिक नेतृत्व खामोशी की चादर ओढ़ लेता है। बहुत पीछे न भी जाएं तो कम-से-कम 2002 के गुजरात तक जाकर तो खूनी सार्वजनिक पृष्ठभूमि को तो खंगाल ही सकते हैं।
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