लखनऊ में तवायफ और हकीम की जंग...आशिकों पर भारी पड़े मरीज, जानें 1920 के चुनाव का रोचक किस्सा

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दिलरुबा ने नगर पालिका चुनाव लड़ने का फैसला लेकर सभी को चौंका दिया था. उन्होंने बताया कि दिलरुबा जब चुनाव प्रचार के लिए निकलती थीं तो उनके पीछे हजारों की भीड़ चलती थी, इसीलिए उनको कोई खिलाफ कोई चुनाव नहीं लड़ना चाहता था.

अंजलि सिंह राजपूत/लखनऊ. लखनऊ में 20 मई वोटिंग है. ऐसे में चारों ओर चुनावी बिगुल बच चुका है. इसी बीच लोकसभा का चुनाव हो या फिर विधानसभा का हमेशा एक किस्सा यहां चुनावी माहौल आते ही चर्चा का विषय बन जाता है. बड़े से बड़े नेता और मंत्री तक इस इसकी चर्चा करते हैं. जिसमें कहा गया था कि ‘लखनऊ में आशिक कम और मरीज ज्यादा रहते हैं’ आखिर ऐसा किसने और कब कहा था यही जानने के लिए देश के जाने-माने इतिहासकार डॉ. रवि भट्ट से local 18 ने बात की. डॉ.

उस हकीम पर उनके चाहने वालों ने नगर पालिका चुनाव लड़ने का दबाव बनाया और वह तैयार भी हो गए लेकिन कुछ दिनों में उन्हें लगने लगा कि चुनाव जीतना मुश्किल है. क्योंकि उनके पीछे गिने-चुने लोग थे, जबकि दिलरुबा के पीछे पूरा हुजूम. वो दौर चुनावी नारों का था. हकीम साहब ने लखनऊ के तमाम इलाकों में दीवारों पर ऐसा नारा लिखवाया, जो देखते-देखते सबकी जुबान पर चढ़ गया.

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