राजनीति एक चौराहा है। अंधा चौराहा। हर आम आदमी, जहां भी जाता है या जाना चाहता है, यह चौराहा उसके साथ आ जाता है। यहां से एक राह उस अंधे कुएं की तरफ़ जाती है जिसमें सरकारी सोच की लाश पड़ी है। दूसरी राह एक नदी की तरफ़ जाती है, जिसमें आम जन-जीवन का शव तैर रहा है। तीसरी राह एक विशाल गड्ढे की तरफ़ जाती है जिसमें सत्ता का मुर्दा गड़ा है और ज़िद का तांत्रिक उसे जगाने या जगाते रहने का यत्न कर रहा है।
राजनीति एक चौराहा है। अंधा चौराहा। हर आम आदमी, जहां भी जाता है या जाना चाहता है, यह चौराहा उसके साथ आ जाता है। यहां से एक राह उस अंधे कुएं की तरफ़ जाती है जिसमें सरकारी सोच की लाश पड़ी है। दूसरी राह एक नदी की तरफ़ जाती है, जिसमें आम जन-जीवन का शव तैर रहा है। तीसरी राह एक विशाल गड्ढे की तरफ़ जाती है जिसमें सत्ता का मुर्दा गड़ा है और ज़िद का तांत्रिक उसे जगाने या जगाते रहने का यत्न कर रहा है।
.. और चौथी राह एक चिता की तरफ़ जाती है जिसकी आग में कई परिवारों और उनसे मिलकर बने समाज के अरमानों की लाश जल रही है। चौराहे की चारों राहों पर लाशें देख कोई आम आदमी पांचवीं राह तलाशता भी है तो दस क़दम चलने के बाद ही उसके पैरों से बहते लहू में वह राह गुम हो जाती है।मध्यप्रदेश में यही हो रहा है। ठीक है पिछले चुनावों में जनता खुद भी कन्फ्यूज थी और उसने भी किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया था। लेकिन सरकार तो किसी एक की बननी ही थी। बन गई। नई सरकार को लगभग डेढ़ साल हो गया। चुनाव के वक्त दस दिन के भीतर पूरे करने के जो वादे किए गए थे, आज तक पूरे नहीं हो सके। इसलिए सरकार रहे या जाए, मप्र के आम आदमी का ठगा जाना तय है। बहरहाल, कमलनाथ सरकार पर इतनी जल्दी ऐसा संकट आ जाएगा, किसी ने नहीं सोचा था। ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में आ चुके हैं। उन्होंने अपनी राज्यसभा सीट भी पक्की कर ली है। उधर, शिवराज सिंह चौहान अपनी सरकार के सपने देखने लगे हैं। हो सकता है वे साकार भी हो जाएं लेकिन आगे संकट आएगा- सिंधिया को भी और शिवराज को भी। यह संकट होगा सिंधिया ख़ेमे के विधायकों का राजनीतिक समायोजन। इनमें दर्जन से ज्यादा तो मंत्री ही हैं। कम से कम उन्हें तो मंत्री या मंत्री जैसी कोई ज़िम्मेदारी देनी ही होगी। फिर 22 विधायकों को अगले चुनाव में टिकट भी चाहिए ही होगा। हालांकि, कहा जा सकता है कि राजनीति में चार साल किसने देखे? तब तक तो गंगा में बहुत पानी बह जाएगा। लेकिन सिंधिया समर्थक तो सिंधिया समर्थक ही रहेंगे! एडजस्ट करना महंगा पड़ सकता है।वैसे जब भाजपा के केंद्रीय नेताओं से बात हुई होगी, सिंधिया ने ये सब सवाल सामने रखे ही होंगे और बेशक, भाजपा नेताओं ने सभी सवालों के जवाब में हां ही कहा होगा। लेकिन, केंद्रीय और राज्य की राजनीति में फ़र्क़ होता है। कुछ भी कीजिए, यह फ़र्क़ रहता ही है। 13-14 साल के भाजपा राज में भाजपा के समर्थक भी तो बने ही होंगे। उनका क्या होगा? उन्हें भी लगेगा कि सिंधिया समर्थक किसी न किसी रूप में उनका हक़ मारने वाले हैं। परेशानी तब बढ़ेगी।फ़िलहाल, बाड़ाबंदी जारी है। कांग्रेस के सभी विधायक जयपुर में हैं और भाजपा वाले गुड़गांव में। विधानसभा का सत्र शुरू होने वाला है। सिंधिया समर्थकों के इस्तीफ़ों पर विचार के लिए स्पीकर के पास सात दिन का वक्त है। इसके बाद ही मामले में राज्यपाल कोई हस्तक्षेप कर सकते हैं। कुल मिलाकर, मामला अभी लम्बा खिंचने वाला है। जो कुछ नया होगा, वह 18 मार्च तक ही होगा।
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