गर्मी का मौसम आते ही बिहार के मुजफ्फरपुर, वैशाली, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, शिवहर जैसे जिलों में बच्चों की मौत होनी शुरू हो जाती है. यह सिलसिला बारिश होने तक जारी रहता है. वर्ष 1995 से ही इस रहस्यमयी बीमारी की वजह से बच्चे काल के गाल में समा रहे हैं. बीच के कुछ सालों में मौत का आंकड़ा कम हुआ लेकिन इस साल 2019 में सरकारी बही-खातों में यह संख्या 180 के पार हो गई. वास्तविक संख्या काफी ज्यादा हो सकती है. स्थानीय लोगों ने इस बीमारी का नाम दिया है 'चमकी बुखार'.
इस साल जब चमकी बुखार की वजह से सैकड़ों बच्चों की मौत हुई तो शासन और प्रशासन पूरी तरह लाचार नजर आए. बिहार के कुछ युवा मदद के लिए प्रभावित क्षेत्र पहुंचे. पहले तो इन युवाओं ने लोगों के बीच डिहाइड्रेशन रोकने वाला ओआरएस घोल, ग्लूकॉन डी, बेबी फूड, सत्तू, पानी, बिस्किट, जूस और थर्मामीटर जैसी जरूरी चीजें बांटी. इस अभियान में शामिल सत्यम कुमार झा कहते हैं,"प्रभावित क्षेत्रों में पहुंचने पर जरूरी चीजें बांटने के अलावा हमने उनके बीच जागरुकता बढ़ाने का काम किया. उन्हें बीमारी के लक्षण बताए.
रिपोर्ट के अनुसार दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए. सामान्य श्रेणी के बच्चों की संख्या महज 3.5 फीसद रही. पीड़ित परिवारों में से 98 प्रतिशत परिवारों की आय 10 हजार रूपये से कम थी. 76 प्रतिशत परिवारों को इस बुखार के बारे में किसी तरह की जानकारी नहीं थी. प्रभावित बच्चों में से 53 फीसद ने बीमार होने से 24 घंटे पहले लीची खायी थी, वहीं 71 फीसद देर तक गर्मी में घूमते रहते थे. अस्पताल पहुंचाने के लिए एंबुलेंस की सेवा भी करीब 10 फीसद लोगों को ही मिली.
स्थानीय स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय चमकी बुखार को लेकर हुई बैठक के दौरान भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच का स्कोर पूछते नजर आए. केद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन के साथ बैठक के दौरान उंघते रहे. विपक्षी पार्टी के नेता भी इस मुद्दे को उठाने की जगह पूरी तरह खामोश रहे.
इस बीमारी से प्रभावित बच्चों में से एक बड़े हिस्से में कई तरह की मनौवैज्ञानिक और शारीरिक समस्याएं देखने को मिली. इसकी वजह से उनका समुचित शारीरिक और मानसिक विकास नहीं होता है. पिछले करीब दो दशक से हर साल सैकड़ों बच्चों की मौत चमकी बुखार की वजह से होती थी. लेकिन 2014-15 में बिहार सरकार ने इस बुखार से बच्चों को बचाने के लिए एक स्टैंडर्ड प्रक्रिया तैयार की थी जिसका असर दिखा और मौत की संख्या में कमी आई. लेकिन 2019 में फिर से एक बार काफी संख्या में बच्चों की मौत हुई. पूरा बिहार असहाय नजर आया.
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