कृषि एक संस्कृति

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व्यापारिक पूंजी के अंतर्विरोधों के कारण पैदा हुए मध्यकाल के सांस्कृतिक अंतर्विभाजन के समन्वय के लिए, उस वक्त कुछ यूटोपियाई धारणाएं कारगर सिद्ध हुई थीं। पर अब कॉरपोरेटी पूंजी से उपजने वाले हालात हमारे सामने हैं। वे सांस्कृतिक अजनबीकरण को जन्म दे रहे हैं।

विनोद शाही भारत के परंपरागत परिदृश्य में कृषि एक व्यवसाय ही नहीं, वह एक विज्ञान, एक जीवन शैली और सबसे बढ़ कर एक संस्कृति भी है। यही वजह है कि भारत में बहुत से लोग अन्न को ब्रह्म का रूप मानते हैं। अगर हम अपनी कृषि संस्कृति के परंपरागत स्रोतों को खोजने का प्रयास करेंगे, तो पाएंगे कि वहां कृषि केवल वन संपदा के विनाश से ताल्लुक रखने वाली सभ्यता नहीं है, जैसा कि उसे पश्चिमी विद्वानों द्वारा देखा-दिखाया जाता रहा है। इसके बजाय वह प्रकृति-पूरक विकास की ओर बढ़ने की संभावनाओं से युक्त एक संस्कृति भी है। पर...

नरेंद्र, राजेंद्र आदि रूप में लगभग सभी के नामों में विद्यमान दिखाई देता है। इससे यह साबित होता है कि भारतीय संस्कृति अपने वैदिक काल से लेकर हमारे समय तक कृषक समाज की चेतना का नियमन करती आ रही है। उपनिषद काल के बाद प्रकट हुए अनेक दर्शन कृषि से संबंधित विविध धारणाओं को गहरे अर्थ की व्यंजना करने के लिए प्रयोग में लाते हैं। योग दर्शन कहता है कि मनुष्य के कर्म के संसार में अगर किसी को कर्मों के प्रसवित होते रहने की स्थिति से निजात चाहिए, तो उसे ‘प्रति-प्रसव’ द्वारा ‘निर्बीज समाधि’ तक जाना होगा। हम...

 

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