दिनेश कुमार July 14, 2019 6:47 AM साहित्यिक कृतियों पर हिंदी में बनी अधिकतर फिल्में विफल साबित हुई हैं और फिल्मों में जाने वाले अधिकतर साहित्यकारों को अंतत: निराशा ही हाथ लगी। वह चाहे प्रेमचंद हों या लोकप्रिय कवि-गीतकार नीरज हों। कवि कुंभनदास के प्रति’ शीर्षक कविता में केदारनाथ सिंह सत्ता और कविता के संबंध पर लिखते हैं- ‘कैसी अनबन है/ कविता और सीकरी के बीच/ कि सदियां गुजर गई/ और दोनों में आज तक पटी ही नहीं।’ यह बात हिंदी साहित्य और हिंदी सिनेमा के संबंध पर भी अक्षरश: लागू होती है। फर्क सिर्फ...
यहां एक बड़ा प्रश्न यह है कि हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक प्रेमचंद की रचनाओं पर बनी फिल्में क्यों विफल हुई? प्रेमचंद तो हिंदी और उर्दू दोनों के सबसे बड़े रचनाकार थे। ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्मों के दर्शक और साहित्य के पाठकों की चेतना में भारी अंतर था। रचनाओं में सिनेमा के मिजाज के अनुकूल अनेकानेक परिवर्तन करने के बावजूद प्रेमचंद की कृतियों पर बनी फिल्में विफल हुर्इं, तो यही कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा के दर्शक वर्ग का जो चरित्र था, वह प्रेमचंद के चेतना और सरोकारों से कासों दूर...
हिंदी साहित्य और हिंदी सिनेमा के बीच रिश्ता सत्तर के दशक में कुछ बेहतर हुआ। गुलजार ने कमलेश्वर की कृतियों पर ‘आंधी’ और ‘मौसम’ जैसी महत्त्वपूर्ण फिल्में बनाई। बासु चटर्जी ने मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर ‘रजनीगंधा’ जैसी सफल फिल्म बनाई। लेकिन यह दौर काफी छोटा रहा। यह देखना कम दिलचस्प नहीं है कि हिंदी फिल्मकारों की तुलना में बंगाली फिल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों की संवेदना को गहराई से समझा और सफल फिल्में बनाई। सत्यजित राय द्वारा प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर इसी नाम से बनाई गई...
सिनेमा अंतत: एक व्यवसाय है। इसमें भारी पूंजी लगी होती है। जैसे-जैसे समय बीत रहा है फिल्म निर्माण में पूंजी की भूमिका और बढ़ रही है। पूंजी से संचालित किसी भी उपक्रम का पहला और अंतिम उद्देश्य मुनाफा होता है। जो भी व्यक्ति पैसा लगाएगा वह सर्वप्रथम यही देखेगा कि उसका पैसा न सिर्फ लौटे, बल्कि साथ में कुछ मुनाफा भी हो। इसके लिए वह हर तरह के हथकंडे का इस्तमाल करता है। यहीं से फिल्म निर्माता और साहित्कार में टकराव शुरू होता है। साहित्यकार की समस्या यह होती है कि उसका पूरा संस्कार ही व्यावसायिकता और...
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