चर्चाः सिनेमा में साहित्य की आवाजाही

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साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाने का चलन पुराना है। अनेक बड़े फिल्मकार कहानियों, उपन्यासों आदि से प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी कलात्मकता से उन्हें फिल्म के रूप में ढालने का प्रयास किया। कई रचनाओं ने इस कदर प्रभावित किया कि उन पर कई फिल्मकारों ने अलग-अलग फिल्में बनार्इं। उनमें से कुछ निस्संदेह कला की दृष्टि से सराहनीय हैं, पर अनेक पर आरोप लगते रहे कि फिल्मकार ने रचना के साथ न्याय नहीं किया। हालांकि दोनों माध्यमों के अलग मिजाज हैं, फिर भी इनका परस्पर संबंध क्षीण नहीं होता। आखिर वह क्या चीज है, जो किसी रचना पर फिल्म बनाते समय फिल्मकार के रास्ते में बाधा बनती है! इस बार की चर्चा इसी पर। - संपादक

जनसत्ता July 14, 2019 6:48 AM अगर सिनेमा में साहित्य का यह एक सीमांत है, तो दूसरा सीमांत है- कवि शैलेंद्र निर्मित ‘तीसरी कसम’ को रुपहले पर्दे पर रेणु की कल्पना का मनोरम अवतार कहा जाना सत्मेयव त्रिपाठी

अगर सिनेमा में साहित्य का यह एक सीमांत है, तो दूसरा सीमांत है- कवि शैलेंद्र निर्मित ‘तीसरी कसम’ को रुपहले पर्दे पर रेणु की कल्पना का मनोरम अवतार कहा जाना। ‘गोदान’ के सारे सामाजिक सरोकारों की कब्र पर बनी त्रिलोक जेटली की फिल्म प्रेमचंद देख पाते, तो अपने बाल नोच लेते। फिर गुलजार के पांच घंटे वाले दूरदर्शनी ‘गोदान’ में 1935 के होरी को चमचमाता जूता पहन के हल जोतते देखते, तो न जाने क्या कर लेते। पर अपनी दो कहानियों पर बनी सत्यजित रे की फिल्में ‘सद्गति’ और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ देखते, तो निस्संदेह गदगद...

ऐसे क्लासिक उदाहरण तो कम ही होते हैं, पर भारतीजी के उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ की यथावत प्रस्तुति को लेकर श्याम बेनेगल की प्रतिबद्धता भी कृति की प्रकृति के अनुसार क्लासिक नहीं, बस स्टाइलिश है। ‘तिरियाचरित्तर’ पूरे गांव की पंचायत के सामने स्त्री के जननांग को दागने जैसे क्रूर-वीभत्स अत्याचार की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी को शिवमूर्ति ने बड़ी गर्मजोशी से लिखा है और बासुजी ने बिना कोई रद्दोबदल किए बड़े ‘कूलली’ बनाया है। शायद ये विधान और तेवर भी विधागत प्रकृति के ही अनुकूल वाजिब हैं, वरना ‘कूल’...

लेकिन ‘उसने कहा था’ जैसी बेजोड़ रचना पर बनी फिल्म देख कर सिर पीट लेना पड़ा। बचपन के अनकहे प्रेम में ‘तेरी कुड़माई हो गई?’ पर ‘धत’ कह कर भाग जाने और एक दिन ‘हां, हो गई, देखते नहीं हो यह रेशम का शालू’ के बाद मौन हो गए नायक लहना का कभी उसके कहे पर जान की कुर्बानी दे देने को न समझ कर मोना गुलाटी ने दोनों को गली-चौबारों में घुमा-घुमा कर पूरी बस्ती में बदनाम करके ही सच का प्रेम साबित किया। कहानी का शरीर ही क्षत-विक्षत नहीं हुआ, उसकी आत्मा का भी सत्यानाश हो...

 

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