केंद्र सरकार सूचना अधिकार कानून 2005 में बदलाव करने जा रही है. 2018 में भी मोदी सरकार ने ऐसा करने की कोशिश की थी, लेकिन सफलता नहीं मिली. अब सरकार ने फिर से संशोधन बिल पेश किया है. सरकार केंद्रीय स्तर से लेकर राज्य स्तर तक मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और सेवा शर्तों में बदलाव लाने जा रही है. संशोधन बिल में प्रस्तावित है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और सेवा शर्तों को सरकारें निर्धारित करेंगी. यह बिल लोकसभा से पास कर दिया गया है.
चुनाव आयोग एक्ट 1991 कहता है कि केंद्र में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों के वेतन, भत्ते और अन्य सेवा शर्तें सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर होंगी. इस तरह देखें तो केंद्रीय सूचना आयुक्त, सूचना आयुक्त और राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त के वेतन, भत्ते और सेवा शर्तें सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर होती हैं.
2013 से 2018 तक भारत के केंद्रीय सूचना आयुक्त रह चुके प्रोफेसर श्रीधर आचार्युलू कहते हैं कि यह संशोधन सूचना आयोग को सरकार के अधीन ला देगा. उनके मुताबिक, इसके खतरनाक परिणाम होंगे. सूचना अधिकार का पूरा क्रियान्वयन इसी बात पर टिका है कि सूचना आयोग इसे कैसे लागू करवाता है. आरटीआई एक्ट की स्वतंत्र व्याख्या तभी संभव है जब यह सरकार के नियंत्रण से आजाद रहे.
केंद्रीय सूचना आयोग में 2009 से 2012 तक सूचना आयुक्त रह चुके शैलेश गांधी इस संशोधन को 'बेहद दुर्भाग्यपूर्ण' बताते हुए कहते हैं कि इस संशोधन का मतलब है कि सरकार सूचना आयोग स्वतंत्रता को नियंत्रित करना चाहती है. वे कहते हैं कि यहां तक कि इस संशोधन का कोई पर्याप्त कारण भी नहीं दिया जा रहा है. जो कारण दिया गया है, उसे 'पूरी तरह अपर्याप्त' बताते हुए वे कहते हैं कि भारत का आरटीआई एक्ट दुनिया में अच्छे कानूनों में से एक है. अगर इसमें कोई कमी है तो वह इसके क्रियान्वयन की है.
सूचना के अधिकार के लिए मैंने 2003 में भरावन हरदोई में दस दिनों तक उपवास किया था और जेल प्रवास किया। उसके बाद से अपनी जिंदगी दांव पर लगा दिया और अब फिर से उपवास करेंगे। चाहें मेरी जान भले ही जाये पर संशोधन होने नहीं देंगे।
बचने के रास्ते ढूंढी जा रहीं हैं
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