जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पांच जनवरी को नकाबपोश हमलावरों द्वारा की गई हिंसा में 30 से अधिक छात्र घायल हुए थे, साथ ही कई शिक्षक भी चोटिल हुए थे. इनमें से एक प्रोफेसर सुचारिता सेन थीं. जेएनयू के इस घटनाक्रम पर सुचारिता सेन से रीतू तोमर की बातचीत.जब पांच जनवरी की शाम कैंपस में हमला हुआ, तब आप कहां थीं और इसकी जानकारी कैसे मिली?
इस बीच नकाबपोशों की भीड़ हमारे सामने आ गई. मैं सबसे आगे खड़ी थी. इससे पहले कि हम कुछ सोच पाते उन्होंने हम पर हमला कर दिया. उनके हाथ में जो कुछ भी था, उससे वो हम पर हमला कर रहे थे. हमें कुछ समझ में नहीं आया क्योंकि इस तरह की घटना पहली बार हो रही थी, वो भी कैंपस में. वह एक बड़ी आधी ईंट जितना बड़ा था. मेरे सिर से लगातार खून बह रहा था. मैं अपना सिर पकड़कर भागने लगी, ये लोग हमारे पीछे भाग रहे थे. मैं एक पेड़ के पीछे छिप गई क्योंकि कुछ समझ ही नहीं आ रहा था.
इतना मुझे नहीं पता लेकिन ये हमला पूरी तरह से एकतरफा था. एक तरफ हम छात्र और शिक्षक शांतिपूर्ण तरीके से बातें कर रहे थे, हमारे पास किसी तरह के हथियार नहीं थे. वहीं उनके पास पत्थर, लाठियां और रॉड थीं. सभी नकाबपोश थे. आप इससे क्या समझते हैं? एक बात और जेएनयू में हमारी मीटिंग में हमेशा सिक्योरिटी होती है लेकिन उस दिन एक भी गार्ड वहां नहीं था, ये मुझे बहुत बाद में समझ में आया. मैं कह सकती हूं कि दिल्ली पुलिस की देखरेख में ये हिंसा हुई.
ओईशी घोष जो खुद गंभीर रूप से घायल हुई, सबसे ज्यादा बर्बरता उसके साथ हुई और उसी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर लगी गई. इससे भद्दा कुछ नहीं हो सकता. मैंने भी एक शिकायत दर्ज कराई है, अभी उसे एफआईआर में तब्दील कराना बाकी है.पहले दुख होता था लेकिन अब आदत हो गई है. 2016 में बहुत दुख हुआ था. टुकड़े-टुकड़े गैंग का नैरेटिव बाहर से आया है, उसका जेएनयू से कोई लेना-देना नहीं है. जेएनयू एकता का प्रतीक है.
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