नई दिल्लीः क्लासिकी तौर पर गजल खास मयने में लिखी और कही जाती रही है. हालांकि वक्त के साथ इस विधा में कुछ प्रयोग भी किए गए. प्रगतिशील आंदोलन के दौर में मजदूरों के हक की बातें सुनाई दीं. मजलूमों का जिक्र हुआ और बहुत ऊंचे सुर में आवाज गूंजी. लेकिन एक मौलिक बदलाव उस वक्त दिखा जब गजल माशूका की जुल्फों के पेचो-खम से निकल मां के आंचल में खेलती दिखी. इस बदलाव के अगुवा के तौर पर मुनव्वर राना का नाम हमेशा याद रहेगा.
बाद के तमाम राजनीतिक घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो मुनव्वर उसी तरह सोच रहे होते जैसा उनके शेरों में दिखता था. वे गंगा जमुनी तहजीब के हामी और वकील दोनो थे. हो सकता है बचपन में सौहार्द्र और लखनऊ में दंगों का असर रहा हो कि वे हिंदी मुस्लिम एकता पर लगातार सोचते और लिखते थे. रिश्तों का किस कदर खयाल रखते ये तो एक-दो मुलाकातों में ही मुझे याद रखने से साफ हो जाता है. जबकि शायर बहुत सारे लोगों और प्रशंसकों से मिलते – जुलते रहते हैं.
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