हिंदी के अनन्य सेवकों में ही नहीं, हिंदी के सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ने वाले महारथियों में भी राजर्षि टंडन जी का नाम सबसे आगे आता है. किसी भी अकेले व्यक्ति ने हिंदी को आगे बढ़ाने में उतना काम नहीं किया या हिंदी के लिए वैसी दुर्धर्ष लड़ाइयां नहीं लड़ीं, जैसी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने. इसके लिए राजनीतिक क्षेत्र में कदम-कदम पर मिलने वाले विरोध के अलावा निजी तौर पर भी उन्हें कोसने वाले कम न थे. पर टंडन जी तो किसी और ही मिट्टी के बने थे.
"बाबू जी के जीवन को बनाने में चार व्यक्तियों का प्रमुख हाथ रहा है- उनके माता-पिता अर्थात हमारे पितामह और दादी, पंडित मदनमोहन मालवीय और पंडित बालकृष्ण भट्ट. हमारे पितामह से उन्हें सत्य पर अडिग रहने की शिक्षा मिली, दादी से स्वभाव की दृढ़ता मिली, मालवीय जी से समाज और हिंदी की सेवा और भट्ट जी से हिंदी में लिखने की प्रेरणा मिली."
टंडन जी ने उसी दृढ़ता से कहा,"आपको यह बात बहुत देर से पता चली!" सुनकर वह अंग्रेज अधिकारी भौचक्का रह गया. कोई हिंदुस्तानी अंग्रेज अधिकारी के मुंह पर ऐसी बात कहे, उस समय कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता था. पर टंडन जी मन से निर्भीक थे और जहां सच्चाई का प्रश्न हो, वहां कोई तिल भर उन्हें झुका नहीं सकता था. यह सुनकर अंग्रेज अध्यापक को बड़ा गुस्सा आया और उसने उलटा टंडन जी को ही उलटा-सीधा कहा. साथ ही फैसला सुना दिया,"जो मेरा निर्णय है, वह बदला नहीं जा सकता." इतना ही नहीं, उसने पुलिस अधिकारियों को शह देते हुए कहा,"इस छात्र को पकड़कर तुम इसके साथ जो भी सलूक करना चाहो, कर सकते हो."
"लाहौर में भगत सिंह उनके पास गए और कहा हमें प्रश्रय दीजिए. लाला लाजपतराय का जब लाठी से सिर फूट गया, तो सभी लाहौरवासी उमड़ पड़े. उस समय लालाजी ने कहा कि हर लाठी जो मेरे सिर पर मारी गई है, वह अंग्रेजी राज्य के विनाश की एक-एक कील है. तभी भगत सिंह ने यशपाल से कहा कि इसका जवाब देना है. यह बात आज जानना जरूरी है कि बाबू जी ने क्रांतिकारियों को भी प्रश्रय दिया था. यह इतिहास में आना चाहिए कि चंद्रशेखर आजाद गोली खाने से एक दिन पहले बाबू जी से मिलने गए.
इसी तप और निःस्वार्थ साधना ने उन्हें बड़ा बनाया. यही कारण है कि उनका कद बड़े से बड़े राजनेताओं से ऊंचा था. सब उन्हें बहुत आदर-मान देते थे. नेहरूजी और डॉ राजेंद्र प्रसाद सरीखे राष्ट्रनायक हों, मैथिलीशरण गुप्त सरीखे बड़े साहित्यकार या डॉ. रघुवीर सरीखे भाषाविद् और विद्वान, सभी अपने पत्रों में उन्हें 'श्रद्धेय टंडन जी' कहकर संबोधित करते थे. डॉ.
टंडन जी त्याग की मूर्ति थे. हिंदी के लिए उन्होंने बड़े से बड़े पद और सम्मान की परवाह नहीं की. यहां तक कि राज्यपाल का पद भी उन्हें इसके आगे तुच्छ लगा और उन्होंने एक क्षुद्र तिनके की तरह उसका परित्याग कर दिया. श्रीनारायण चतुर्वेदी बताते हैं कि एक बार मिलने पर टंडन जी ने उनसे कहा,"मुझसे उड़ीसा का राज्यपाल होने को कहा जा रहा है. तुम्हारी क्या सम्मति है. मैं उसे स्वीकार करूं या न करूं?"
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