लेकिन अपने देश में ग़ाज़ीपुर जो इलाका है, जहां संयोग से मैं भी पैदा हुआ हूं, वह वामपंथी आंदोलन का एक गढ़ रहा है और उसी वामपंथी चेतना का परिणाम था कि एक अध्यापक ने, भारत में और मुझे तो लगता है एशियाई देशों में यह पहला उदाहरण होगा कि क्रिस्टोफर कॉडवेल पर ग़ाज़ीपुर के अध्यापक ने पीएचडी की. मैंने ग़ाज़ीपुर की उस सोच और चेतना को क्रिस्टोफर कॉडवेल को कनेक्ट किया है.
डॉ. सिंह ने भरसक प्रयासों से गरीबों, मजदूरों, दलितों, समाज के उत्पीड़तों के प्रति एक संचेतना का विकास किया और उसमें मार्क्सवाद ने उन्हें उत्प्रेरित किया और फिर अध्यापक बनने के बाद वह उनकी लड़ाइयों में भी शामिल हुए. उन्होंने डॉक्टर भीमराव आंबेडकर पर भी अध्ययन किया और जाति व वर्ण भी लिखा है. हालांकि, मेरा मानना है कि डॉ. नामवर सिंह एक बहुत ही पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और वह बहुत ही शानदार शिक्षक थे. हिंदी के शिक्षक के रूप में उनकी कोई बराबरी नहीं थी. हमारे जमाने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भी बहुत अच्छे शिक्षक थे लेकिन नामवर जी के पास ज्ञान का अथाह सागर था. लेकिन मैं फिर वही सवाल उठाता हूं कि भारतीय समाज में एक अजीब विरोधाभास है कि पढ़े-लिखे होने का यह मतलब नहीं है कि आप मानवीय स्तर पर या बदलाव की सोच या संस्कृति को लेकर बहुत ही अनुकूल होंगे.
बिल्कुल. मैं हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता पर तरस खाता हूं कि आज तक हमारे देश की मुख्यधारा की मीडिया के किसी भी बड़े अखबार, संस्थान या पत्रिका ने आज तक साहित्य अकादमी के इस चरित्र पर कोई बड़ी खबर नहीं छापी या कोई बड़ा विश्लेषण नहीं किया. आजादी के बाद जबसे साहित्य अकादमी गठित हुई तबसे वहां पर हिंदी में जितने भी लोगों को साहित्य अकादमी सम्मान मिले हैं, वह कुछ अपवादों को छोड़कर एक ही तरह की बिरादरियों को मिला है, बल्कि एक ही वर्ण के लोगों को ज्यादा मिला है.
इस किताब में वामपंथी दलों के चरित्र पर भी काफी सवाल उठाए गए हैं. कहा गया है कि ये दल जाति को लेकर उतने मुखर नहीं हुए और आरक्षण को लेकर भी उन्होंने बहुत जोर नहीं दिया. ऐसा लगने की क्या वजह रही? हालांकि, इसके साथ ही उसमें बहुत-से ऐसे लोग थे जो कथित ऊंची जाति से थे, वे नेतृत्व में आए और जो तथाकथित निचला तबका है उनके लिए बड़ा काम किया. ऐसे दो मुख्य उदाहरण केरल के पहले मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद और राहुल सांकृत्यायन हैं. ये दोनों विचारक डिक्लास के साथ ही डिकास्ट भी होते हैं जबकि हमारे वामपंथी डिक्लास की तो बात करते हैं लेकिन डिकास्ट नहीं होते हैं.
मैं जिन दिनों की बात कर रहा हूं, बहुत हास्यास्पद स्थिति थी. आप एक पेशेवर पत्रकार को दरकिनार कर रहे हैं और जो पत्रकारिता करते हुए किसी पार्टी के सदस्य ही नहीं बल्कि चुनाव भी लड़ रहे हैं आप उन्हें बीट दे रहे हैं और ब्यूरो चीफ बना रहे हैं.
UrmileshJ * प्रगतिशील और उदारवादी, लोगों के बीच में नहीं जाते यह तो एक बात है * दूसरी बात जो लोग जाते हैं उनके पीछे पड़े रहते हैं यह लोग टांग खिंचाई में
UrmileshJ मान गये न कि ये लूटियोंस जोन मे पाए जाते हैं
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