हिमाचल प्रदेश में वन अधिकार क़ानून का हाल बेहाल क्यों है

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हिमाचल प्रदेश में वन अधिकार क़ानून का हाल बेहाल क्यों है HimachalPradesh ForestRightsAct हिमाचलप्रदेश वनअधिकारकानून

जनजातीय जिले लाहौल-स्पीति में वनों के संरक्षण में स्थानीय महिला मंडलों की अहम भूमिका रही है. मूलिंग गांव की महिलाएं अपने द्वारा संरक्षित जंगलों में.

दूर-दराज़ पहाड़ों से पहुंचे सभी साथियों के लिए ये अनुभव अनोखा था. केवल भूगोल और समाज की भिन्नता की वजह से नहीं बल्कि पहनावा, खाना, भाषा और वन प्रजातिया चाहे अलग हों – पर वन भूमि से घिरे तो हिमाचल के पहाड़ भी हैं- सदियों से यहां के भी समुदाय – चाहे जनजातीय क्षेत्र से हों या फिर अन्य वन निवासी- जंगल से जुड़े रहे हैं.

हिमाचल के कुल भू-भाग का 67% हिस्सा वन भूमि की श्रेणी में आता है और इसकी तुलना में ओडिशा राज्य का 37% भू-भाग वन भूमि है – इसके बावजूद यहां करीबन 9 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर 4.5 लाख पट्टे मिले हैं. एलपीजी हिमाचल के लगभग हर घर में पहुंच गई है, लेकिन क्या हम जलाऊ लकड़ी के बिना जीवन की कल्पना कर सकते हैं जहां तापमान शून्य से भी नीचे चला जाता है?

पिछले कुछ दशकों में हिमाचल के जनजातीय तथा अन्य क्षेत्रों में व्यावसायिक खेती के चलते लोगों के पास एक कमाई का साधन आया है – इससे यहां की कठिन परिस्थितियों से ज़रूर थोड़ा निजात लोगों को मिला- पर सामूहिक संसाधनों पर निर्भरता खत्म नहीं हुई. बंदोबस्ती की प्रक्रिया के अंग्रेजी भाषा में होने के कारण अशिक्षित वन निवासियों द्वारा समझे न जाने पर अपने वन अधिकारों से वंचित होना पड़ा और. साथ ही विकास परियोजनाओं से ख़त्म होते जंगल और संसाधनों से होती समाज, संस्कृति और पर्यावरण की त्रासदी से वे अंग्रेज़ी शासन और औद्योगिक युग की शुरुआत से ही परिचित हैं और विरोध करने को मजबूर भी.

 

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