उत्तराखंड के मशहूर तीर्थ स्थल केदारनाथ के ऊपर चौराबाड़ी ग्लेशियर. सात किलोमीटर लंबा यह ग्लेशियर बर्फ से पटा रहता था. श्रद्धालु और सैलानी इसकी खूब तस्वीरें खिंचते हैं. ग्लेशियर 3,860 मीटर की ऊंचाई से शुरू होता है और 6,350 मीटर की ऊंचाई तक जाता है. 2019 में इस ग्लेशियर ने रिकॉर्ड बर्फबारी देखी. जनवरी से लेकर अप्रैल के बीच वहां 42 फीट बर्फ गिरी. यह 20 फीट की औसतन बर्फबारी से कहीं ज्यादा हिमपात था.
बावजूद इसके अप्रैल से अक्टूबर तक ग्लेशियरों का अध्ययन करने वाले डॉक्टर डीपी डोभाल चिंतित दिखते हैं. वाडिया हिमालय भूविज्ञान के वैज्ञानिक डोभाल के मुताबिक इतनी ज्यादा बर्फबारी से कोई फायदा नहीं हुआ. हिमनद को हो रहा नुकसान जारी है. डोभाल इसकी वजह भी बताते हैं,"पहले हिमपात अक्टूबर में शुरू होता था और मार्च तक चलता था. सर्दियों में होने वाले इस हिमपात के दौरान बर्फ अच्छे से सेट हो जाया करती थी. बीते कुछ सालों में मौसम का यह पैटर्न बदल गया है. अब बर्फबारी जनवरी से अप्रैल तक हो रही है.
चौराबाड़ी ग्लेशियर धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है. कुछ ऐसा ही हाल गंगोत्री और पिंडारी समेत हिंदुकुश और हिमालय के सारे ग्लेशियरों का है. गर्म होती जलवायु और मौसमी चक्र में परिवर्तन एशिया के वॉटर टावर को खाली करता जा रहा है. उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बाद पृथ्वी पर सबसे ज्यादा बर्फ हिमालय में ही मौजूद है.
एशिया की चार सबसे बड़ी नदी घाटी सभ्यताएं हिंदुकुश हिमालय रेंज के ग्लेशियरों पर ही निर्भर हैं. सिंधु घाटी, गंगा का मैदान, यांगत्से और ब्रह्मपुत्र का मैदान इन्हीं ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों से पनपा है. अगर ग्लेशियरों के चलते इन नदियों की हालत खराब हुई तो इसका सीधा असर कम से कम तीन अरब लोगों को पड़ेगा. वे बूंद बूंद को तरस जाएंगे. क्या हालत इतने भयावह होने जा रहे हैं? ये पूछने पर डॉक्टर डोभाल कहते हैं,"हम नकारात्मक स्थिति में हैं. काफी कुछ हो चुके हैं और काफी कुछ खोने जा रहे हैं.
3200 किलोमीटर लंबी हिंदुकुश हिमालयन रेंज के ग्लेशियरों के गायब होने का सीधा असर अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, चीन, भूटान, म्यांमार, थाइलैंड और वियतनाम तक महसूस होगा. वैज्ञानिकों के मुताबिक इंसान समय के साथ रेस में हैं, जहां उसके पास खोने के बहुत कुछ है, और पाने के नाम पर संरक्षण से ज्यादा विकल्प नहीं हैं.
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