"उनके कई दोस्तों ने उन्हें सलाह दी कि आप 'वॉक आउट' कर जाइए लेकिन उन्होंने ज़ोर दिया कि उनके विरोध को बाक़ायदा दर्ज किया जाए.
जब वो घर लौटे तो रात भर उनकी इस अंदेशे में कटी कि कब पुलिस आ कर उन्हें गिरफ़्तार कर लेगी.' लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पर ये बताता है कि वो किस हद तक व्यवस्था के ख़िलाफ़ बुलंद आवाज़ में बोल सकते थे."राही अपने और अपने छोटे भाई अहमद रज़ा के परिवारों के साथराही मासूम रज़ा का जन्म एक अगस्त, 1927 को ग़ाज़ीपुर में हुआ था. 11 साल की उम्र में उन्हें टीबी हो गई. उस ज़माने में टीबी का कोई इलाज नहीं था.
बीमारी के बीच उन्होंने घर में रखी सारी किताबें पढ़ डालीं. उनका दिल बहलाने और उन्हें कहानी सुनाने के लिए कल्लू काका को मुलाज़िम रखा गया.नदीम हसनैन बताते हैं, "हम लोग गर्मियों की छुट्टियों में अपने ननिहाल जाया करते थे ग़ाज़ीपुर. मेरी राही की सबसे पहली यादें वहीं की हैं. वहाँ मैंने राही को घर में तो कुर्ता पायजामा पहने देखा. वो हल्का सा लंगड़ा कर चलते थे क्योंकि उनके पैर में पोलियो था. वो बहुत नफ़ीस उर्दू बोलते थे और बहुत अच्छी भोजपुरी भी बोलते थे.
"जब वो बाहर जाते थे तो हमेशा शेरवानी और अलीगढ़ी पाजामा पहनते थे. उनकी शेरवानी कभी रंगीन नहीं होती थी. हमेशा वो क्रीम कलर की शेरवानी पहना करते थे. चश्मा हमेशा वो काला पहनते थे, हाँलाकि उनकी आँखों में कोई समस्या नहीं थी. मैंने उन्हें मोहर्रम में मजलिस पढ़ते हुए भी देखा है, जो बहुत कम लोगों ने देखा होगा."
"वो कभी तख़्त या चटाई पर नहीं बैठते थे, बल्कि खड़े हो कर तक़रीर के अंदाज़ में मजलिस पढ़ा करते थे. वैसे उनको धर्म से कोई ख़ास लगाव नहीं था."
Andh bhakto ko toh badi apatti hoti hogi!!!
गंगा पुत्र को नमन🙏🌹🌹.
🙏🌹🙏
U r right sir.
इनका नाम भले ही मुसलमानों जैसा है , पर दिल 100% हिंदुस्तानी है। राही मासूम रजा साहब का कोई जोड़ नहीं बेजोड़ है।
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