अलीगढ़ /वसीम अहमद: इतिहास में इस बात का जिक्र कई बार मिलता है कि मुगल जब किसी महिला पर रीझ जाते थे. लेकिन उसे अपनी बेगम या रानी बनाने में किसी तरह की दिक्कत महसूस करते थे तो उससे मुता विवाह कर लेते थे. अक्सर ये विवाह तब होता था, जब मुगल परिवारों में कोई शहजादा या बादशाह दूसरे धर्म की महिला से विवाह करने को लालायित होता था. मोटे तौर पर पर इस विवाह को यौन सुख या आनंद के लिए किया गया अस्थायी विवाह माना जाता था. विवाहिता को कभी पूर्ण बीवी का दर्जा नहीं मिलता था.
ऐसे विवाह का इस्लाम से कोई ताल्लुक नहीं है. इस विवाह को लेकर लोगों द्वारा अपनी मनगढ़ंत कहानी बनाई हुई है. कुरान में मुता विवाह का नहीं है जिक्र मुफ्ती मोहम्मद नदीम आगे बताते हैं कि इस्लाम में इस तरह की बातों की कोई जगह नहीं है. बल्कि इस्लाम में तो औरतों को बहुत ऊंचा आला दर्जा दिया गया है. पुराने जमाने में अगर मुगल या बादशाह लोगों द्वारा इस तरह का कोई विवाह किया जाता हो तो, यह उनका अपना जाति मामला था. इससे इस्लाम या कुरान या मुसलमान का कोई ताल्लुक नहीं है.
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