एसबीआई रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक, मतदाता सूची में पुरुषों और महिलाओं के बीच का फासला लगातार कम हो रहा है और अगले पांच साल मेंइसके और महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बावजूद इस बार भी तमाम प्रमुख दलों नेबरती है. ऐसे दलों की दलील रही है कि टिकटों के बंटवारे में जीतने की क्षमता को ध्यान में रखा गया है. कुछ राजनीतिक दल तो यह भी दलील देते हैं कि महिलाएं वोट डालने में तो दिलचस्पी रखती हैं, चुनाव लड़ने में नहीं.
इससे साफ है कि बीते दस वर्षों के दौरान जहां पुरुष मतदाताओं की तादाद में छह करोड़ की वृद्धि दर्ज की गई है वहीं महिला वोटरों में यह वृद्धि 7.1 करोड़ रही है. यानी मतदाता सूची में लैंगिक असमानता तेजी से कम हो रही है. गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और तेलंगाना में महिला वोटरों की तादाद बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ी है.
पिछले दशक की सबसे महत्वपूर्ण बातों में से एक है. महिला मतदाता अब चुनावों में पहले से कहीं अधिक बड़ी भूमिका निभा रही हैं. रिपोर्ट के मुताबिक अब साक्षरता बढ़ने के कारण महिलाएं राजनीतिक फैसला लेने वाले एक अहम समूह के रूप में उभर रही हैं. महिला आरक्षण विधेयक, रसोई गैस सब्सिडी, सस्ते ऋण और नकद राशि के वितरण जैसे कदमों से महिला मतदाताओं को लुभाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से बीजेपी के वोटों में वृद्धि में मदद मिली है.
संसद में महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने वाली भाजपा ने 417 संसदीय सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की है. इनमें 68 महिलाएं हैं. यानी पार्टी ने सिर्फ 16 फीसदी महिलाओं पर ही भरोसा जताया है. बीजेपी ने 2009 में 45, 2014 में 38 और 2019 में 55 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था.
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