ब्रेक्जिट की आफत से बढ़ी है ब्रिटेन की दोस्त बनाने की चाहत | DW | 17.12.2020

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यूरोपीय संघ से अलग होने के ब्रिटेन के फैसले ने दोनों ही पक्षों की हालत सांप छंछूदर जैसी कर दी है. 2016 में यूरोपीय संघ की सदस्यता छोड़ने के फैसले के बाद शुरू हुई ब्रेक्जिट प्रक्रिया ने कई चुनौतियां पैदा की हैं. EuropeanUnion Brexit UnitedKingdom

कभी सॉफ्ट ब्रेक्जिट तो कभी हार्ड ब्रेक्जिट, कभी डील तो कभी नो–डील, ब्रेक्जिट ने एक अजब सी असमंजस और निराशा की स्थिति पैदा कर दी है. खास तौर पर इसका शिकार ब्रिटेन ही हुआ है जो यूरोपीय संघ से बाहर निकल तो रहा है लेकिन कैसे, यह किसी को पता नहीं है. आए दिन हो रही ब्रिटेन और यूरोपीय संघ की बैठकों से फिलहाल तो यही लगता है कि आखिरकार यह मामला कड़वाहट के साथ ही खतम होगा.

यूरोपीय संघ का असर इस समझौते पर साफ झलकता है क्योंकि इस समझौते का बड़ा हिस्सा यूरोपीय संघ और सिंगापुर के बीच हुए मुक्त व्यापार समझौते पर ही आधारित है. ऊर्जा क्षेत्र हो या दवाएं और अन्य चिकित्सकीय सुविधाएं, इलेक्ट्रॉनिक्स हो या मोटरकारें और उनके कलपुर्जे, वस्तु व्यापार संबंधी बातें हों या सर्विसेज सेक्टर, सभी पर यूरोपीय संघ और सिंगापुर समझौते की ही छवि दिखती है. 1 जनवरी 2021 से यह समझौता जमीनी हकीकत में बदल भी जाएगा.

लेकिन क्या इतने से ही ब्रिटेन की चिंताएं समाप्त हो जाएंगी? नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है. यूरोपीय संघ से निकलने के बाद ब्रिटेन की विश्व व्यापार में पकड़ कमजोर होगी. और इसकी भरपाई के लिए संभवतः ब्रिटेन कॉम्प्रेहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप की ओर भी भागेगा. इसकी भरपाई के लिये ब्रिटेन को अमेरिका या चीन जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ साथ भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ओर भी रुख करना होगा.

कहते हैं, बुरे वक्त में पुरखों की बनाई पूंजी काम आती है. ब्रिटेन भी शायद उसी पूंजी का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी साख लौटाने में करे. 50 से अधिक सदस्यों वाला कॉमनवेल्थ इस आड़े वक्त में बहुत काम आ सकता है. भारत समेत दुनिया के कई महत्वपूर्ण देश इसके सदस्य हैं. इसी तरह का दूसरा सैन्य सहयोग का संगठन है एफपीडीए जिससे दक्षिणपूर्व में ब्रिटेन को अपनी जगह मजबूत करने का अच्छा अवसर मिल सकेगा.

 

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