प्रोफेसर तुलसीराम ने वर्ष 2015 में 13 फरवरी को फरीदाबाद स्थित एशियन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस में अंतिम सांस ली थी. उसके कुछ ही दिनों पहले अपनी ‘मुर्दहिया’ व ‘मणिकर्णिका’ शीर्षक आत्मकथा पर एक चर्चा में उन्होंने कहा था कि उन्हें लगता है कि सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक समानता लाए बिना यह पूरा देश ही मुर्दहिया है. आत्मकथा लिखने से पहले उन्होंने ‘आइडियॉलॉजी इन सोवियत-ईरान रिलेशंस-लेनिन टू स्टालिन’ समेत अंतरराष्ट्रीय संबंधों व राजनीति पर कई पुस्तकें भी लिखी थीं.
जहां तक निजी हमलों की बात है, एक बार वे एक व्याख्यान में मनुवाद की स्थापनाओं की पोल खोल रहे थे, तो एक हमलावर ‘प्रश्नकर्ता’ ने उनसे यह तक पूछ लिया था कि वे मनुवाद का विरोध कैसे कर सकते हैं, उनका तो नाम ही मनुवादी है? तब कहते हैं कि उन्होंने हंसते हुए लेकिन बहुत चुटीले अंदाज में जवाब दिया था, ‘हां, मेरे माता-पिता ने यह गलती तो की. मेरे जन्म लेने पर मेरा नाम रखने से पहले उन्हें इस बाबत आपसे पूछ लेना था.
उनका मानना था कि दलित आत्मकथाएं निश्चित रूप से दलित ही लिख सकते हैं क्योंकि मात्र वही उस पीड़ा से गुजरे हैं. देवदासी प्रथा तक में, जिसे धार्मिक मान्यता प्राप्त थी, दलित महिलाओं को ही झोंका गया था. विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन व रूसी मामलों के तो वे अपनी तरह के अनूठे विशेषज्ञ थे ही, अंतरराष्ट्रीय बौद्ध आंदोलन के साथ भारत के दलित आंदोलन में गहरी पैठ रखने वाले मनीषी भी थे. हां, राजनीतिविज्ञानी भी, समाजविज्ञानी भी और चिंतक भी. गौतम बुद्ध, कार्ल मार्क्स और डॉ. भीमराव आंबेडकर की विचारधाराओं में समन्वय की चाह से भरे रहने के कारण कई जानकार उन्हें ‘तीन बौद्धिक परंपराओं का वाहक’ भी कहते हैं.
उनका मत था कि मार्क्सवाद और आंबेडकर-विचारधारा के अंतर्विरोधों को केवल उनके ऐतिहासिक संदर्भों में देखा जाना चाहिए. साथ ही समझा जाना चाहिए कि बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर मार्क्सवादी नीतियों से नहीं, उनसे जुड़ी कुछ घटनाओं व संदर्भों से असहमत थे. उन्हीं के शब्दों में कहें तो, ‘अच्छा होता कि भारत के मार्क्सवादी थोड़े दलित आंदोलनोन्मुख हो जाते और केवल मजदूरों के पक्ष या सत्ताविरोध के क्षेत्र में ही सक्रिय न रहते. तब शायद दलित आंदोलन के साथ उनके समन्वय व सामंजस्य की कोई राह निकलती.
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