गत दिनों चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित करते हुए रैलियों आदि की मार्फत परंपरागत प्रचार पर रोक लगा दी, जिससे पार्टियों व प्रत्याशियों को अपने विचारों व नीतियों को मतदाताओं तक पहुंचाने के लिए प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, डिजिटल व सोशल आदि विभिन्न मीडियारूपों का ही सहारा रह गया, तो बहुत से लोगों को मई, 1982 की याद आई.
हाईकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो भी उन्होंने हार नहीं मानी. अंततः सुप्रीम कोर्ट ने उनकी बात मान ली और फैसला सुनाया कि चुनाव आयोग को विधिसम्मत प्रक्रिया से चुनाव कराने का ही अधिकार है, उसे बदलने का नहीं. न्यायालय ने उन 50 बूथों पर, जहां आयोग ने मशीनों से मतदान कराया था, फिर से बैलेट पेपर से मतदान कराने का आदेश दिया, जिसका अनुपालन हुआ तो जोस को 2,000 वोट ज्यादा मिले.
अकारण नहीं कि जब से चुनाव आयोग ने यह फैसलाकर मतदाताओं तक पहुंचने के लिए दलों व प्रत्याशियों के समक्ष मीडिया और वर्चुअल रैली के माध्यम से डिजिटल प्रचार के ही विकल्प छोड़े हैं, तभी से सवाल उठाए जाने लगे हैं कि क्या उसके इस फैसले का मुकाबले के सभी पक्षों पर एक जैसा असर होगा? अगर नहीं तो इसका लाभ किसके खाते में जाएगा?
समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने भी सवाल उठाया है कि जिन पार्टियों के पास संसाधन नहीं है, वे वर्चुअल रैली कैसे करेंगी और इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल प्रचार की दौड़ में उन्हें स्पेस कैसे मिलेगा? क्या इसके लिए चुनाव आयोग उन्हें धन और संसाधन उपलब्ध कराएगा? कई दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को लेकर भी भाजपा पर ऐसे आरोप लग चुके हैं. यह भी खबर है कि उसने डिजिटल प्रचार के लिए 8,000 कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर रखा है और उसके पास अपनी विशाल आईटी आर्मी का खर्च उठाने के लिए भरपूर संसाधन भी हैं.
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