जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण पर उल्टा चल रही है मोदी सरकार? | DW | 17.01.2020

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साफ हवा को तरसते दिल्ली और उत्तर भारत के लोगों को राहत मिलने की उम्मीद नहीं है. एक तरफ कोयला से चलने वाले बिजलीघर और दो साल तक जहरीला सल्फर छोड़ते रहेंगे, तो वहीं सरकार कोयले पर 400 रुपये प्रति टन का सेस हटाने जा रही है.

अब यह साफ हो गया है कि दिल्ली के पड़ोसी राज्यों के कोयला बिजलीघर बिना सल्फर इमीशन कंट्रोल टेक्नोलॉजी लगाए कम से कम दो साल और चलते रहेंगे. यह दिल्लीवासियों समेत उत्तर भारत के करोड़ों लोगों की सेहत के लिए अच्छी ख़बर नहीं है. फिलहाल सरकार ने प्रदूषण फैला रहे इन बिजलीघरों को चालू रखने की"मौखिक सहमति" दे दी है. कई अधिकारियों और पावर कंपनियों ने इसकी पुष्टि की है.

दिल्ली और आसपास के इलाकों में प्रदूषण के खतरनाक स्तर को देखते हुए प्रदूषण फैला रहे इन कोयला बिजलीघरों को मिला यह दूसरा एक्सटेंशन आम आदमी के स्वास्थ्य पर कड़ी चोट है क्योंकि सल्फर डाइ ऑक्साइड गैस सांस संबंधी खतरनाक बीमारियों को बढ़ाने के साथ एयर क्वॉलिटी इंडेक्स को तेज़ी से बिगाड़ने में रोल अदा करता है.

पिछले एक दशक सोलर पावर की कीमत सात से आठ गुना गिरी है. जहां सौर और पवन ऊर्जा आज 2.5 रुपये से 3.00 रुपये प्रति यूनिट है वहीं कोयला 3.5 से 4.00 रुपये प्रति यूनिट है. यही वजह है कि पावर सेक्टर कर्ज में डूबा पड़ा है.राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद शहर की स्थिति सबसे खराब है. सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड द्वारा जारी डाटा के अनुसार बुधवार को एक्यूआई 478 था. यह देश में सबसे अधिक है. हरियाणा का पानीपत शहर प्रदूषण के मामले में देश में दूसरे स्थान पर है. यहां का एक्यूआई 475 मापा गया.

आंकड़ों के मुताबिक सरकार ने कोयसा सेस के नाम पर अब तक कुल करीब 1 लाख करोड़ रुपया इकट्ठा किया. जानकारों का तर्क है कि इसे क्लीन एनर्जी को बढ़ावा देने और प्रदूषण नियंत्रण की टेक्नोलॉजी और यंत्र लगाने में इस्तेमाल होता तो कोयला बिजलीघरों पर भी दबाव कम होता. भारत की ऊर्जा जरूरतों का 60 प्रतिशत से अधिक अभी भी कोयला बिजलीघर पूरा करते हैं. इसलिए साफ ऊर्जा, प्रदूषण नियंत्रण और कोलपालर के साथ एक संतुलन बना कर चलने की जरूरत है.

 

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