यह शब्द मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रदेशाध्यक्ष व विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ के हैं जो उन्होंने तब कहे थे जब जुलाई माह में दो हफ्तों के भीतर एक-एक करके तीन कांग्रेसी विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए.
यह नियुक्ति तब हुई है जब राज्य में मार्च से जुलाई के बीच कांग्रेस के कुल 25 विधायक दल बदलकर भाजपा में चले गए हैं. यह कवायद चार टुकड़ों में हुई है. इसके उलट कमलनाथ को उपकृत होकर नेता प्रतिपक्ष का भी पद मिल गया. कटघरे में कमलनाथ को होना चाहिए था क्योंकि मुखिया वही थे. सिंधिया से मतभेद की वजह वही थे. प्रदेश कांग्रेस संगठन के एक पदाधिकारी गोपनीयता की शर्त पर बताते हैं, ‘अगर कमलनाथ ने अपने विधायक, मंत्रियों व पार्टी नेताओं को पर्याप्त समय और सम्मान दिया होता तो सत्ता जाती ही नहीं.’
यह बात सही है कि विपरीत परिस्थितियों में विरोधी स्वर मुखर हो जाते हैं, लेकिन जब परिस्थितियां प्रदेश में कांग्रेस के अनुकूल थीं और कमलनाथ मुख्यमंत्री थे, तब भी अनेक मौकों पर उनके नेतृत्व पर सवाल उठे थे. वे आगे कहते हैं, ‘पूर्व सरकार के घोटालों पर उनका नर्म रुख था जबकि भाजपा आक्रामक रही और मौका देखकर सरकार गिरा दी. अगर कमलनाथ भी शुरू से आक्रामक रहते तो भाजपा हावी नहीं हो पाती. कमलनाथ मैनेजमेंट करके चल रहे थे, भाजपा को नाराज करना नहीं चाहते थे और गुड गवर्नेंस उनकी प्राथमिकता नहीं थी. उन्हें आरोप-पत्र के बारे में बात करना तक पसंद नहीं था, मतलब कि वे भाजपा से डरते थे या उसके खिलाफ कोई जांच नहीं चाहते थे, इसलिए मैंने कांग्रेस से किनारा कर लिया.
इसलिए इन सभी आरोपों और दावों के बीच प्रश्न उठता है कि क्या कमलनाथ मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमजोर कड़ी हैं? 2013 विधानसभा चुनावों में सिंधिया राज्य में कांग्रेस का चेहरा थे, इसलिए उन्हें उम्मीद थी कि प्रदेशाध्यक्ष वे ही बनाए जाएंगे लेकिन पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी के चलते कमलनाथ को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का साथ मिला और उनकी ताजपोशी हो गई.
वे आगे कहते हैं, ‘लेकिन अब वे दिग्विजय के साये से मुक्त होने के लिए हर जिले में अपना नेटवर्क खड़ा कर रहे हैं. उपचुनावों में सिर्फ अपने समर्थकों को टिकट बांट रहे हैं ताकि राज्य में उनके समर्थक बढ़ें और पार्टी पर दिग्विजय की पकड़ ढीली हो.’ वे भरे मंच से बोले, ‘अन्याय तो हुआ है लेकिन क्या कर सकते हैं? मैं टिकट वितरण में हस्तक्षेप नहीं कर रहा हूं.’
उसके बाद कमलनाथ द्वारा की गई नियुक्तियों के चलते पूर्व केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी नटराजन नाराज हुईं तो उन्हें भी दिग्विजय ने ही मनाया. विधानसभा चुनावों से पहले जब-जब पार्टी में बगावत फूटी, उसे दिग्विजय सिंह ने ही दबाया.उन्होंने अपनी समन्वय यात्रा में सिंधिया के ग्वालियर-चंबल को छोड़कर पूरे प्रदेश में दौरे करके पार्टी की गुटबाजी समाप्त की, तो दूसरी ओर कमलनाथ बतौर प्रदेशाध्यक्ष सिंधिया और दिग्विजय के आपसी मतभेद तक नहीं सुलझा पाए जिसके चलते दिग्विजय की समन्वय यात्रा ग्वालियर-चंबल की सीमा पर ही थम गई.
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