कोई रंग आत्मा को नहीं छूता। रोज एक नई हिला देने वाली तस्वीर निकल आती है। आप सिर्फ स्तब्ध रह जाते हैं।
अब जब उन्हें लग रहा है कि जीवन अनिश्चित है, सिर्फ महामारी का संताप तय है, तो घर के अतिरिक्त और क्या आश्वस्ति हो सकती है? बकौल विनोद कुमार शुक्ल, घर तो जाने से ज्यादा लौटने के लिए होता है, और जब जीवन का भय हो तो घर की आश्वस्ति ही सब हो जाती है। सो, वे संघर्ष के नए सिरे तलाशने पैदल ही चल पड़े। सोशल डिस्टेंसिंग के सच पर नई ट्रेन की छोटी-सी अफवाह भी भारी पड़ गई। सब ध्यान से देख रहे हैं और जान भी रहे हैं। कुछ ही प्रदेश हैं। दीमापुर-कोलकाता से बंगलूरू-हैदराबाद तक से ज्यादातर राहें उधर ही मुड़ रही हैं। वहां से देश का विमर्श और विचार की दिशा करने वाले ज्ञानी भी बड़ी संख्या में आते हैं। मगर वे बरसों से राजधानियों से विचारो की बौछारें ही भेजते रहे हैं। 'चेंज' के अलावा उन जगहों पर भला कौन लौटता है? उन इलाकों में राजनीतिक-आर्थिक बदहाली...
कोई रंग आत्मा को नहीं छूता। रोज एक नई हिला देने वाली तस्वीर निकल आती है। आप सिर्फ स्तब्ध रह जाते हैं।हाल की कई घटनाओं में से एक यह थी कि महाराष्ट्र सरकार ने यूपी-बिहार के लोगों को बसों में भरकर मध्यप्रदेश की सीमा पर डंप कर दिया। जिस मंदिर के पास उन्हें लावारिस छोड़ा गया था, वहां कोई सरकारी कारिंदा न था। सिर्फ दो बैनर लगे थे-यूपी और बिहार। महाराष्ट्र ने अपना बोझ मध्य प्रदेश पर डाल दिया। मध्य प्रदेश उन्हें उत्तर प्रदेश-बिहार की सीमा पर डालेगा। वहां से 'उनके अपने' प्रदेशों का सिलसिला शुरू...
महामारियां मानवीय समुदाय के भीतर जितने भी अंतर्विरोध होते हैं, उन्हें उघाड़कर रख देती हैं। जब सरकारी हुक्म से शहर के फाटक बंद होते हैं, तो लोग ऐसा आचरण करने लगते हैं, जैसे व्यक्तिगत भावनाएं होती ही नहीं। अर्जियां, मेहरबानी, खास इंतजाम, मित्रता, प्रेम आदि शब्द दोहराए गए और बेमानी हो जाते हैं, क्योंकि तब उन्हें सिर्फ कतरन की तरह संवादों में चिपकाया जाने लगता है। बीच-बीच में झूठी कल्पनाओं से महामारी के अंत की कल्पित भविष्यवाणियों से हृदय को सहलाया जाता...
yv_post जब तक सतही-दिखावट की राजनीति रहेगी राजनीति का अर्थ सत्ता व पैसा कमाने का जरिया रहेगा राजनीति सवर्ण- दलित, हिन्दू-मुस्लिम लड़वाकर वोट बटोरेगी। अफ़सर नेताओं से पद व पोस्टिंग की भीख मांगेगे मीडिया पैसे व भय से न्यूज परोसेगी यह आलम रहेगा वोट सावधानी से करें, उन्माद में नहीं
yv_post भारत में कोई भी जंग हो पर पलायन जैसी स्थिति इन गरीब लोगों के साथ ही देखने को क्यों मिलती है? अगर हमारे देश की गरीब लोग बड़े व्यापार में काम नहीं करेंगे तो क्या बड़े व्यापार चल पाएंगे? क्या हमारा देश इन लोगों के बिना तरक्की कर पाएगा?
yv_post हमारे देश में हर जंग मे इन गरीब लोगों को ही क्यों कष्ट झेलना पड़ता है। क्यो इन लोगों की कदर नहीं हो पाती, जबकि जितने भी बड़े व्यापार चलते हैं इन गरीब लोगों के सहारे ही चलते हैं फिर भी इन लोगों के साथ पलायन जैसी स्थिति आ जाती है।
yv_post अगर हमारे देश की गरीब लोग बड़े व्यापार में काम नहीं करेंगे तो क्या बड़े व्यापार चल पाएंगे।
yv_post हमारे देश में हर जंग मे इन गरीब लोगों को ही क्यों कष्ट झेलना पड़ता है। तो इन लोगों की कदर नहीं हो पाती, जबकि जितने भी बड़े व्यापार चलते हैं इन गरीब लोगों के सहारे ही चलते हैं फिर भी इन लोगों के साथ पलायन जैसी स्थिति आ जाती है।
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