कोरोना का ज्वर सिर चढ़ कर बोल रहा था। कभी लगता था कि कान पर जैसे कुछ ढपढप तेज बज रहा है, तो कुछ देर बाद ये आवाजें किसी अंधे कुएं में फिसल कर गिर जाती थीं और शरीर शीतल हो जाता था। पसीने से कपड़े तरबतर हो जाते थे, पर फिर तुरंत ही बढ़ते ताप से सूख जाते थे। अस्पताल में आसपास क्या हो रहा है, समझ में तो नहीं आ रहा था, पर धुंधला-सा महसूस जरूर हो रहा था। आइसीयू में मेरे बिस्तर पर लगातार डॉक्टर और नर्स आ-जा रहे थे। उनके चेहरे नहीं थे- एक नीले मास्क के बाद दूसरा, या फिर वही मास्क आता था और उसके झक सफेद हाथ...
हाथ एक-दूसरे में पिघल गए थे। तरल अनुभूतियां अतल झील की तरह किनारों को थपकी दे रही थीं। मुझे नींद का आलस अपनी गोदी में उठा कर हल्के से झुला रहा था। मैं शून्य में लुप्त हो ही रहा था कि बयार फिर चली और मैंने अपने को एक सुनसान जगह पर पाया, जहां से दूर कुछ मकान दिख रहे थे। रहने की जगह तलाश रहे हैं? किसी ने पूछा था। मैंने सिर हिला दिया था और हम चल पड़े थे। एक क्षण में हम कई मकानों के सामने खड़े थे। मैं पहले मकान में दाखिल हुआ था और फौरन ही बाहर आ गया था। सीलन की जबर्दस्त गंध मुझसे बर्दाश्त नहीं हुई थी।...
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