को चुनावों में सफाये की आदत हो गई है. लेकिन हाल के चुनावों का हाल देखिए- उत्तर प्रदेश विधानसभा में सिर्फ दो सीटें, और पंजाब में मानो सत्ता से जोरदार तरीके से बेदखली. यहां तक कि राज्य के कांग्रेस प्रमुख ने हार के बाद जो टिप्पणी की, उससे लगता था, जैसे कह रहे हों, हम इसी के लायक हैं. पांचों राज्यों के चुनावों में करारी हार. यह गर्त में गिरना ही तो है.
के उतने ही मुख्यमंत्री होंगे, जितने कांग्रेस के. दस में से सिर्फ एक व्यक्ति की नुमाइंदगी एक कांग्रेसी सांसद लोकसभा में कर रहा है.यूं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक लोकतंत्र का संकट मौजूद है. लेकिन अगर हम फ्रांस को अपवाद मानें, तो सामाजिक लोकतांत्रिक परंपरा वाले दूसरे बड़े देशों के मुकाबले भारत में इसका संकट बहुत गंभीर है. हालांकि नजर हर तरफ धुंधली नहीं.
यूं कांग्रेस वह अकेला राष्ट्रवादी आंदोलन नहीं है, जिसे राष्ट्रीयता के शुरुआती मकसद को हासिल करने के बाद अपने वजूद को बरकरार रखने में मुश्किलें आई हैं. हम दक्षिण अफ्रीका की अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की मिसाल ले सकते हैं: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुकाबले इसका झुकाव वामपंथ की तरफ ज्यादा है और पूर्ण गैर नस्लीय लोकतंत्र के रूप में उसकी उपलब्धि भी काफी नई है. लेकिन भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के कई आरोपों ने इसकी छवि को दागदार किया है. इसकी सैद्धांतिक जमीन को कमजोर किया है.
सामाजिक लोकतंत्र क्या होता है- क्या यह बताने की जरूरत है? लोकतंत्र के मायने सिर्फ लोक का तंत्र, व्यवस्था नहीं- यह शासन चलाने की प्रणाली ही नहीं है. एक तरह की कार्यशैली है जो पार्टी के भीतर भी कायम होनी चाहिए. कांग्रेस इस शैली को अपनाने में नाकाम रही है. पार्टी के भीतर लोकतंत्र की बजाय वंशवाद को वरीयता देने का एक ही तर्क दिया जाता है कि यह परिवार चुनाव जीतता है. लेकिन अब वह चुनाव जीतता या जिताता नहीं है.
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