यह खयाल मुझे यों ही आता रहता है, जब अपने आसपास लोगों को इंटरनेट की दुनिया में घुस कर उसी को अपना हाथ-पांव और जीवन बनाते देखती हूं। हालांकि बदलते तकनीक से मुझे आपत्ति नहीं है और न ही इंटरनेट के उपयोगिता पर कोई सवाल खड़े करना चाहती हूं, लेकिन बदलते माहौल को देख कर वर्तमान पीढ़ी के जीवनचर्या का अनुमान लगाती हूं। कितनी सिमट गई है आज के युवाओं की जिंदगी। दोस्त भी इंटरनेट और व्यवहार भी इंटरनेट।
थोड़ा पीछे मुड़ कर देखती हूं तो मन में कितने ही सवाल खड़े हो जाते हैं। क्या आज के बच्चे समाज से जुड़ पाएंगे? क्या उनकी व्यवहारिकता उपयुक्त होगी? क्या वे कभी समझ पाएंगे साथ बैठना, रहना, सामाजिक दायित्व का निर्वाह है? ऐसा लगता है कि उनका हंसना-बोलना, सोना-जागना, उठना-बैठना सब कुछ इंटरनेट ही निर्धारित करता हो। कितना अंतर आ चुका है पिता और पुत्र के संबंधों और जीवनशैली में! क्या यह बदलता परिवेश हमें उन्नत कर रहा है? आज भी हम नब्बे के दशक वाले लोग हाथ चलाने से ज्यादा मुंह चलाना पसंद करते हैं। मेरे कहने...
तकनीक का विकास, सुविधाओं की बढ़त जीवन के लिए आवश्यक है। समाज और देश के लिए अच्छा है। लेकिन सबसे जरूरी अपना विकास है जो शायद कुंठित होता जा रहा है। कारण कुछ भी हो, आज की युवा पीढ़ी स्वकेंद्रित होती जा रही है। यह अच्छा है कि अगर आप अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए कुछ निर्णय लेते हैं, लेकिन अपने दायित्व को ताक पर रख कर कार्य करना अपेक्षित नहीं। बच्चों और युवाओं को जब तक अपने कर्तव्य और दायित्व का बोध नहीं होगा, समाज की उन्नति संभव नहीं। मुझे लगता है कि कुछ समय निकाल कर परिवार और समाज को देना...
बहरहाल, आॅनलाइन व्यवस्था ने बाजार के संघर्ष से तो लोगों को बचा लिया है, लेकिन उसी संघर्ष से उत्पन्न जीवन के मूल्य को समझने का मौका छीन लिया है। यहां एक बात और स्पष्ट है कि आॅनलाइन खरीदारी हमेशा लाभदायक नहीं होती। इसके लिए हमारी समझ और आंखें- दोनों खुली होनी चाहिए, वरना हम घाटे के शिकार हो सकते हैं। आज जिस तरह आॅनलाइन खरीद-बिक्री का जाल बिछ रहा है। हमारी बुद्धि हमें धोखा दे सकती है। इन सब बातों से बेखबर आज के बच्चे खुद को इंटरनेट का सर्वज्ञाता समझ बैठते हैं और कई गलतियां भी करते जाते...
मैं बस इतना नहीं समझ पाती कि क्या यह कंप्यूटर-मोबाइल परिवार-समाज के साथ बिताए जाने वाले बहुमूल्य समय को कभी दे पाएंगे? एक वक्त बीत जाने के बाद यही बच्चे परिवार के मूल्य को समझेंगे, उन लम्हों को ढूंढ़ेंगे, जो उन्हें अपनों के साथ बिताने थे। लेकिन अपनी नादानी की वजह से वे उन्हें गवां चुके होंगे। परिवार, समाज, राष्ट्र एक ऐसा बंधन है जो हमें यह समझाता है कि हमारा महत्त्व क्या है और किस स्थान पर हम किस तरह काम आ सकते हैं। हम सभी एक डोर से बंधे होते हैं। कहीं न कहीं, कभी न कभी एक इंसान ही दूसरे के काम...
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