' हिंदी हैं हम ' शब्द शृंखला में आज का शब्द है- उद्भ्रांत , जिसका अर्थ है- घूमता या चक्कर खाता हुआ, भूला-भटका हुआ, उन्मत्त, पागल। प्रस्तुत है अज्ञेय की कविता- आज थका हिय-हारिल मेरा! इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझको और कहाँ रस होगा? शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा! दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता, तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में बल भरता, उषा से ही उड़ता आया, पर न मिल सकी तेरी झाँकी साँझ समय थक चला विकल मेरे प्राणों का हारिल-पाखी :...
है; मैं हारिल हूँ, बैठे रहना मेरे कुल का कर्म नहीं है। तुम प्रिय की अनुकंपा माँगो, मैं माँगूँ अपना समकक्षी साथ-साथ उड़ सकने वाला एकमात्र वह कंचन-पक्षी!’ यों कहता उड़ जाता हारिल लेकर निज भुज-बल का संबल किंतु अंत संध्या आती है—आख़िर भुज-बल है कितना बल? कोई गाता, किंतु सदा मिट्टी से बँधा-बँधा रहता है, कोई नभ-चारी, पर पीड़ा भी चुप होकर ही सहता है; चातक हैं, केकी हैं, संध्या को निराश हो सो जाते हैं, हारिल हैं—उड़ते-उड़ते ही अंत गगन में खो जाते हैं। कोई प्यासा मर जाता है, कोई प्यासा जी लेता है कोई...
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