बंटवारे के दर्द को बयां करने वाली इस नज़्म ने विभाजित होने से लगातार इनकार किया है. बंटवारे का दर्द सरहद के आर-पार फैला था तो यह नज़्म किसी सरहद के अंदर नहीं रही. इससे भी आगे यह नज़्म बंटवारे जैसी हिंसा का शिकार लोगों की ज़ुबान बनने के लिए भाषाओं, मुल्कों और सरहदों की दूरियां मिटाती चली गयी.
"आज पंजाब की एक बेटी नहीं, लाखों बेटियां रो रहीं थीं. आज इन के दुखों को कौन गायेगा? वारिस शाह के बिना मुझे कोई ऐसा नहीं लगा जिसको मुखातिब होकर मैं यह बात कहती. उस रात चलती गाड़ी में हिलती और कांपती कलम के साथ यह नज़्म लिखी."अज्ज लखां धियां रोन्दियाँ तैनु वारिस शाह नूं कहन '...अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं' पंजाब की हद्दें-सरहदें फांद कर लाहौर पहुंचा, और अभी चैकोस्लोवाकिआ , रूस और दूसरे देशों में जा पहुंचा है. यह गीत बग़ैर पासपोर्ट, बग़ैर वीसा के जगह-जगह घूमता है और पंजाब की आवाज़ बन गया है."बंटवारे के बाद इस से जुड़ी हिंसा के बारे में पहली फ़िल्म 1959 में सैफुद्दीन सैफ के निर्देशन में बनी. करतार सिंह नाम की इस पंजाबी फ़िल्म का सूत्रधार अलग-अलग मौकों पर वारिस शाह की हीर सुनाता है.
फिल्म के निर्देशक और निर्माता सैफुद्दीन सैफ़ का जन्म अमृतसर में हुआ और वह बंटवारे के दौरान अपने शहर से उजड़ कर लाहौर जा बसे. इस तरह अमृता की नज़्म लाहौर से उजड़ने वाले का एहसास थी तो उजड़ कर लाहौर आने वाले के भी दिल की हालत बयां करती थी.अमृता प्रीतम 'रसीदी टिकट' में लिखती हैं,"जब 1972 में लंदन गई तो बीबीसी के एक कमरे में किसी ने पाकिस्तान की शायरा साहाब किज़लबाश के साथ मुलाक़ात करवाई.
पत्र में आगे लिखा है,"दूसरी तरफ़ देश की हीरें अपनी चीखें सीने में दफ़न कर ज़हर के प्याले भर-भर की पी रहीं हैं और खेड़ों की डोली में बैठ जाती हैं. दिल्ली की गलियों में खो जाने वाली हमने आप से उम्मीदें लगाई थीं. तुम्हारे तरफ की हीरों को रोने से कोई नहीं रोकता. आकर अपने मायके वाले पंजाब का हाल देखो. आज यहां चारों तरफ कैदों खड़े हैं और उनके घेरे में राँझा अकेला है."
अमृता ने यह नज़्म वारिस शाह के नाम ही क्यों लिखी? इसका जवाब उन्होंने स्पष्ट रूप से तो कभी नहीं दिया लेकिन उनकी किताब 'मेरे कालमुक्त समकाली' में यह जवाब स्पष्ट रूप में दर्ज़ है. इस किताब में अमृता ने 16वीं-18वीं के कवियों वारिस शाह, बुल्ले शाह, हाशिम शाह और सुल्तान बाहु से मुलाकातें लिखीं हैं.
अरे बस करो रे मा&$%!द बो सड़ी वालों शहरी नक्सलियो, हर एक वामपंथी का जीवन और उसके मृत्यु का लेखा-जोखा छापते रहते हैं। कभी इन हरानजादे के मुंह से स्वामी विवेकानंद की तारीफ सुना है?
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