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ओलंपिक: वो नौ बातें जो भारतीय खिलाड़ियों को 'मेडल' तक नहीं पहुंचने देतीं, ये कहानी है 'भूख' और 'राजनीति' की

जितेंद्र भारद्वाज, नई दिल्ली Published by: गौरव पाण्डेय Updated Sun, 01 Aug 2021 08:39 PM IST
सार

यहां बात केवल टोक्यो ओलंपिक की नहीं हो रही, इससे पहले का भी इतिहास उठा कर देख लें। हर ओलंपिक में इस तरह से मेडल का इंतजार किया जाता है, जैसे तपते रेगिस्तान में बरसात का। एक मेडल आने पर पूरा देश झूमने लगता है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जितनी आबादी वाले देश 'मेडल' का अंबार लगा देते हैं। भारत अपनी आजादी के 75 वें साल में प्रवेश कर रहा है। आखिर वे कौन सी वजहें हैं जो भारतीय खिलाड़ियों को 'मेडल' तक नहीं पहुंचने देती हैं। ये कहानी है 'भूख' और 'राजनीति' की। पूर्व अंतरराष्ट्रीय वॉलीबॉल खिलाड़ी ओमप्रकाश सिंह, जो 90 के दशक में भारतीय टीम के कप्तान रहे थे और ध्यानचंद अवार्ड व भीम अवार्ड जैसे प्रतिष्ठित खेल सम्मान से नवाजे जा चुके हैं, ने यह बात कही है। 

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9 points which stops Indian athletes from winning Olympics medals here is all you need to know in Hindi
ओलंपिक - फोटो : पिक्साबे
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विस्तार
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मीराबाई चानू को प्रशिक्षण के लिए ट्रक में बैठकर इंफाल तक आना पड़ा तो वहीं रेसवॉकर संदीप पुनिया को बकरी चराते हुए अपना अभ्यास करना पड़ा है। उन्होंने कहा, प्वाइंट तो दर्जनों हैं, लेकिन असल कारणों को नौ बातों में समेटने का प्रयास करेंगे। खेल फेडरेशन, चयन प्रक्रिया, कोच की नियुक्ति, गुटबाजी, भ्रष्टाचार, खुन्नस और कई दूसरी बातें मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों को आगे आने ही नहीं देती हैं। रविवार को अमर उजाला डॉट कॉम के साथ विशेष बातचीत करते हुए ओमप्रकाश ने कहा, आप यह भी देखें कि भारत में किन खिलाड़ियों को कब और किस अवस्था में मौका मिलता है। खिलाड़ियों को तैयार करने में सरकार का कितना हाथ रहता है। करोड़ों अरबों रुपयों वाले खेल संघ, पांच साल क्या करते रहते हैं। केवल खिलाड़ी को ही मेडल की भूख क्यों रहती है। क्या वह अपनी गरीबी से निजात पाना चाहता है।



गांव वाले या कोई संस्था खिलाड़ी के खाने का खर्च उठाती है। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) क्या करता है। आज तक कितने ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने साई में रहते हुए ओलंपिक में पदक जीता है। चीन में 12 वर्ष की आयु में बच्चे को सरकार ले लेती है। उसके खेल और ट्रेनिंग की प्लानिंग करती है। नतीजा, 18 से 22 साल के बीच वे खिलाड़ी पदक भी झटक लेते हैं। भारत में अधिकांश खिलाड़ियों को अपनी गरीबी और खेल संघों की राजनीति से लड़कर आगे आना पड़ता है। खिलाड़ियों के पास खुद की किट तक नहीं होती। साथी खिलाड़ियों का सामान मांगकर अभ्यास करनी पड़ता है। ऐसे में ओलंपिक से पदकों का अंबार लगेगा, ये सोचना बेमानी है। 

ये नौ बातें जो बनती हैं ओलंपिक पदक आने में बाधा

  1. ओमप्रकाश सिंह बताते हैं, खेल फेडरेशन पर आज किसका कब्जा है, ये समझने वाली बात है। साई के डीजी गुजरात के आईआरएस अधिकारी संदीप प्रधान हैं। ये तो केवल एक उदाहरण है, तकरीबन हर फेडरेशन में ऐसा ही मिलेगा। खेलों का विकास, खिलाड़ियों का चयन, कोच की नियुक्ति और प्रशिक्षण लगाना, ये सारे काम फेडरेशन के हैं। आज इन फेडरेशन पर गुटबाजी हावी है, क्योंकि हर कदम पर राजनीतिक हस्तक्षेप है। फेडरेशन के पदाधिकारी राजनीतिक लोगों की मर्जी से ही कुर्सी पर काबिज होते हैं। स्टेट एसोसिएशन से फेडरेशन बनता है। एसोसिएशन में भी वही हाल रहता है। 'खेल और खिलाड़ी' को छोड़कर बाकी हर बात वहां देखने को मिलती है। 
  2. इन फेडरेशन में कई बार ऐसे खिलाड़ी आगे आने का प्रयास करते हैं, जिन्होंने देश के लिए कुछ किया है। उन्हें कोई वोट नहीं करता। वजह, सब 'राजनीतिक' सिस्टम के प्रभाव में रहते हैं। आईएएस व आईपीएस, खेल संघों में सैर सपाटे के तौर पर आ जाते हैं। हाकी खिलाड़ी परगट सिंह को कौन नहीं जानता, उन्होंने जब फेडरेशन के लिए ट्राई किया तो बुरी तरह हार गए। ऐसे प्रख्यात खिलाड़ी का जब ये हाल है तो यह बात समझी जा सकती है कि फेडरेशन में 'राजनीतिक' सिस्टम किस तरह हावी हो गया है। गुजरात, केरल, तमिलनाडु और दूसरे शहरों में 'साई' सेंटर हैं। खिलाड़ियों से हॉस्टल भरे पड़े हैं, लेकिन बात मेडल की आती है तो 'सूखा' नजर आता है, ऐसा क्यों। ओमप्रकाश यह सवाल भी उठाते हैं कि कई जगहों पर विदेशी कोच लाए जाते हैं, जबकि उस खेल के बेहतरीन कोच हमारे देश में हैं। जी जान लगाने वाले स्वदेशी कोच को मुश्किल से दस बीस हजार रुपये देते हैं, जबकि विदेशी कोच को 20 हजार डॉलर मिल जाता है। किसी राज्य का कोच है तो उसे ड्यूटी फ्री करा देते हैं। 
  3. कई खेल संघ ऐसे भी हैं, जहां पर किसी ऐसे पूर्व खिलाड़ी को कमान सौंप दी जाती है, जो खेल जीवन में फेल रहा है। वह खिलाड़ी किसी फेडरेशन या एसोसिएशन में आता है तो सबसे पहले पुराने लोगों से खुन्नस निकालने लगता है। फेडरेशन में गलत लोगों को आगे लाने का प्रयास होता है। ऐसे पदाधिकारी खेल पर ध्यान देने की बजाए राजनीति की तरफ कदम बढ़ा लेते हैं। राजनेताओं के परिजनों या रिश्तेदारों को खेल संघों में नियुक्ति दे देते हैं। 
  4. कोच किसी भी खेल का पिलर होता है। उसे डिक्टेटर होना चाहिए। ये एक सफल कोच के लिए बहुत जरुरी है। कोच के पास उच्च शैक्षणिक योग्यता, तकनीकी ज्ञान और ईमानदारी, ये तीन गुण होने आवश्यक हैं। हमारे देश में उल्टा है। यहां ऐसे कोचों को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिम्मेदारी मिलती है, जो खेल के साथ 'खेल' करते हैं। असल कोच तो लोकल स्तर पर ही रह जाता है। बतौर ओमप्रकाश, हाकी कोच बलदेव सिंह को कौन नहीं जानता। उन्हें कभी राष्ट्रीय टीम का कोच नहीं बनाया। टोक्यो ओलंपिक में एकमात्र जिम्नास्ट प्रणति नायक की कोच, मीनारा बेगम जिसने उसे 18 साल तक प्रशिक्षण दिया, उसे ओलंपिक में नहीं भेजा गया। कोई दूसरा कोच भेज दिया गया। ऐसे में मेडल की उम्मीद कम हो जाती है। कोचों की नियुक्ति में जमकर भाई भतीजावाद बरता जाता है। असल कोच को तो मौका ही नहीं मिलता। 
  5. टोक्यो ओलंपिक में पदक लाने से चूक गईं मीराबाई चानू ट्रेनिंग के लिए ट्रक में बैठकर इंफाल तक पहुंचती थी। देश के नंबर वन रेसवॉकर संदीप पुनिया को जिस आयु में ट्रेनिंग व सुविधाओं की जरूरत थी, तब वे बकरी चराकर अपना अभ्यास करते थे। गांव के मेलों में 50 से 100 रुपये की कुश्ती लड़ने वाले संदीप पुनिया टोक्यो ओलंपिक खेलों में 20 किलोमीटर रेसवॉकर में अपना दम दिखाएंगे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने की वजह से उन्हें बचपन से ही संघर्ष करना पड़ा। उस दौर में इन खिलाड़ियों को साई हॉस्टल क्यों नहीं मिल सका। इन्हें वहां दाखिला न मिलने का क्या कारण रहा। विदेशों में सरकार एक नीति बनाती है। खिलाड़ियों को आठ से दस साल की ट्रेनिंग दी जाती है। भारत में सारा काम खिलाड़ियों को करना पड़ता है। 
  6. चयन प्रक्रिया में कई खामियां रहती हैं। विशेषज्ञों को वहां जगह ही नहीं दी जाती। अधिकारियों की चलती है। आईएएस, आईपीएस, नेता या कोई दूसरा व्यक्ति जो गैर खिलाड़ी वर्ग से आते हैं, वे अपनी मनमर्जी या सिफारिश से गलत चयन कर देते हैं। नतीजा, खिलाड़ी और देश, दोनों को नुकसान उठाना पड़ता है। होनहार खिलाड़ियों को चयन प्रक्रिया में ही बाहर कर दिया जाता है। इस तरह की खबरें आए दिन छपती रहती हैं। जिन खिलाड़ियों का चयन होता है, उन पर जबरदस्ती गैर जरूरी शर्तें थोपी जाती हैं। अगर कोई खिलाड़ी ना नुकर करता है तो उसका आगे जाने का सफर इतना मुश्किल बना देते हैं कि वह खिलाड़ी खुद ही बाहर आने की सोचने लगता है। 
  7. देश में कोचिंग का स्तर बहुत कमजोर रहता है। पटियाला, बंगलूरू, गांधीनगर या कोलकाता आदि साई सेंटरों पर कोचिंग को लेकर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता। वहां के ट्रेनर को ही ट्रेनिंग का ज्ञान नहीं होता। वजह, ज्यादा उम्मीदवार नौकरी के चक्कर में डिप्लोमा या डिग्री लेने आते हैं। उनका खेल से ज्यादा लेना-देना नहीं होता। साढ़े दस माह का डिप्लोमा या दो साल की एमएस होती है। अगर कोई आगे जाना चाहता है तो इंटरनेशनल फेडरेशन के साथ लेवल एक, दो या तीन का प्रशिक्षण प्राप्त करना होता है। कई विदेशी यूनिवर्सिटी भी कोर्स कराती हैं। इन कोर्सों में थ्योरी पर ही फोकस रहता है। प्रैक्टिल जानकारी न होने के कारण कोच, अच्छे खिलाड़ी तैयार नहीं कर पाते। 80 के दशक में साई में 300 असिस्टेंट डायरेक्टर भर्ती किए गए थे। वे सभी राजनीतिक नियुक्तियां थी। अधिकांश पदाधिकारियों का खेलों से कोई मतलब नहीं था। बाद में वही लोग निदेशक और दूसरे पदों पर बैठ गए। चयन प्रक्रिया और कोचों की नियुक्ति, सब उन्हीं के हाथ में आ गया। अब मेडल का अंदाजा लगा सकते हैं।  
  8. देश में कई जगह पर देखने को मिलता है कि असल खिलाड़ी या रियल ट्रेनर पीछे छूट जाते हैं। बतौर ओमप्रकाश, असल ट्रेनर को द्रोणाचार्य अवार्ड नहीं मिलता। देश में कुश्ती में पदक लाने वाले एक खिलाड़ी का उदाहरण सबके सामने है। जब उस खिलाड़ी को ओलंपिक में पदक मिला तो द्रोणाचार्य अवार्ड किसी दूसरे को मिल गया। हालांकि उस मामले में खिलाड़ी को कोई एतराज नहीं था। बाद में वे दोनों रिश्तेदार बन गए। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जहां स्कूल या कालेज के दौरान खिलाड़ी को जो कोच निखारता है, उसे भुला दिया जाता है। 
  9. ओमप्रकाश सिंह कहते हैं, फेडरेशन को सरकार से पैसा मिलता है। वह लोगों के टैक्स का पैसा होता है। उसे मनमर्जी और गलत तरीके से खर्च किया जाता है। खेल संघों में बैठे पदाधिकारी उस पैसे का दुरुपयोग करते हैं। खिलाड़ियों को दूसरों से सामान मांग कर ट्रेनिंग करनी पड़ती है। जब भी कोई टीम विदेश जाती है तो उसके साथ पदाधिकारी अपने रिश्तेदारों को मैनेजर या कोच बनाकर भेज देते हैं। लोगों के पैसे पर सैर सपाटा हो जाता है। मेडल आए या न आए, इसे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। चयन प्रक्रिया से लेकर कोचों की नियुक्ति तक सारा काम फेडरेशन वाले करते हैं। वहां तमाम नियमों को ताक पर रख दिया जाता है। वजह, उनमें कोई सरकारी प्रतिनिधि तो होता नहीं है। खिलाड़ी अपनी गरीबी से जूझते हैं और खेल संघों में सरकारी पैसे पर मौज उड़ाई जाती है। अगर आगे भी यही व्यवस्था रही तो ओलंपिक में मेडल का इंतजार लंबा होता जाएगा। सरकार को बिना कोई देरी किए एक प्रभावी खेल नीति बनानी चाहिए। इसमें ऐसे खिलाड़ियों को शामिल करें, जिन्होंने जुनून से परे जाकर खिलाड़ियों को तैयार किया है।
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