नई दिल्ली
ऑल पॉलिटिक्स इज लोकल...अमेरिकी चुनावों के संदर्भ में कही गई यह बात गुरुवार को भारत में भी सच होती दिखी। हरियाणा, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणाम के साथ ही पचास से अधिक विधानसभा के नतीजों ने यह साफ कर दिया कि कोई पार्टी सिर्फ राष्ट्रवाद की बात करके लोगों का दिल नहीं जीत सकती, बल्कि उसे राष्ट्रीय मुद्दे, क्षेत्रीय मुद्दों पर भी बात करनी होगी। इस चुनाव में एनसीपी, शिवसेना जैसे क्षेत्रीय दलों की साख बढ़ना और जेजेपी का उदय होना इसका उदाहरण है।महाराष्ट्र में बीजेपी का शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाना तय है। गठबंधन को अकेले दम बहुमत भी मिला। हरियाणा में बीजेपी सत्ता के दौड़ से पूरी तरह बाहर नहीं हुई है, लेकिन इस जनादेश का अपना एक संदेश भी है। आम चुनाव में बड़ी जीत के बाद से लेकर दो राज्यों के चुनाव के बीच देश के अंदर सियासी नैरेटिव तेजी से बदला। धारा 370 के बहाने राष्ट्रवाद और राम मंदिर मुद्दा पिछले कुछ महीनों से अपने शीर्ष पर था और बीजेपी ने स्थानीय मुद्दों को दरकिनार कर दोनों राज्यों में इन्हीं दो मुद्दों के इर्द-गिर्द अपना सियासी स्टैंड रखा। लेकिन जो परिणाम रहे उससे यह संदेश गया कि यह मुद्दा अपेक्षा के अनुरुप जनता के बीच नहीं चल सकी। इस तरह इन दोनों राज्यों ने चुनाव से राजनेताओं को जनता ने कुछ पाठ पढ़ाए हैं। जानिए इस चुनाव से क्या समझ में आया
आर्थिक मंदी
धीमी आर्थिक रफ्तार, बेरोजगारी और ग्रामीण संकट लोकसभा की तरह इसबार के चुनाव में भी मुद्दे थे। विपक्षी पार्टियों ने इन्हें उठाया भी। लेकिन इन्होंने बीजेपी का कितना नुकसान किया यह साफ नहीं। अगर लोग इनपर ध्यान दे रहे होते तो लोकसभा में 300 से ज्यादा सीटों के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में भी पार्टी सबसे बड़ा दल बनकर सामने नहीं आती।
पढ़ें: राष्ट्रीय मुद्दों पर फोकस के कारण BJP को मिले सीमित परिणाम?
जाति का मामला
कहा जाता है कि विभिन्न जातियों का एकजुट होकर नरेंद्र मोदी को वोट देना ही उनकी ताकत रहा है। इस बार भी विभिन्न जातियों ने कुछ ऐसा ही करके दिखाया। जाट या मराठा, जिन्हें कमतर आंका जा रहा था, उन्होंने भी एकबार फिर अपना महत्व दिखा दिया। शरद पवार या दुष्यंत चौटाला को मिली सीटों के पीछे भी जाति फैक्टर का बड़ा रोल है।
आर्टिकल 370
जम्मू कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाने से भारतीय जनता पार्टी को फायदा हुआ या नहीं यह साफतौर पर कहा नहीं जा सकता। इसका ठीक उत्तर खोजने के लिए यह अंदाजा लगाना होगा कि अगर बीजेपी ने राष्ट्रवाद कार्ड नहीं खेला होता तो वह कैसा प्रदर्शन करती। इस मुद्दे पर कांग्रेस नेता भुपेंद्र सिंह हुड्डा ने राहुल गांधी के खिलाफ जाकर निर्णय का समर्थन किया था। वहीं एनसीपी के शरद पवार और जेजेपी के दुष्यंत चौटाला भी इसका विरोध करने से बच रहे थे।
क्षेत्रीय खिलाड़ियों को राहत
दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ क्षेत्रियों पार्टियों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया है। चाहे वह शिवसेना हो या फिर जेजेपी। यह अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय नेताओं को राहत देगा। ये लोग उम्मीद लगा रहे होंगे कि उनके राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनाव के नतीजे भी कुछ ऐसे ही रहें।
भ्रष्टाचार का वोटर्स पर असर नहीं
ऐसा लगता है कि सीनियर नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार या विभिन्न तरह के आरोपों को लोगों ने मुद्दा नहीं माना। शरद पवार का उदाहरण हमारे सामने है। चुनाव से पहले पवार का नाम महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक घोटाले में आया। इसपर ईडी ने जांच शुरू की। इस जांच को पवार ने मराठों पर हमले के तौर पर दिखाया और लोगों का उनको साथ भी मिला।
ऑल पॉलिटिक्स इज लोकल...अमेरिकी चुनावों के संदर्भ में कही गई यह बात गुरुवार को भारत में भी सच होती दिखी। हरियाणा, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणाम के साथ ही पचास से अधिक विधानसभा के नतीजों ने यह साफ कर दिया कि कोई पार्टी सिर्फ राष्ट्रवाद की बात करके लोगों का दिल नहीं जीत सकती, बल्कि उसे राष्ट्रीय मुद्दे, क्षेत्रीय मुद्दों पर भी बात करनी होगी। इस चुनाव में एनसीपी, शिवसेना जैसे क्षेत्रीय दलों की साख बढ़ना और जेजेपी का उदय होना इसका उदाहरण है।महाराष्ट्र में बीजेपी का शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाना तय है। गठबंधन को अकेले दम बहुमत भी मिला। हरियाणा में बीजेपी सत्ता के दौड़ से पूरी तरह बाहर नहीं हुई है, लेकिन इस जनादेश का अपना एक संदेश भी है। आम चुनाव में बड़ी जीत के बाद से लेकर दो राज्यों के चुनाव के बीच देश के अंदर सियासी नैरेटिव तेजी से बदला। धारा 370 के बहाने राष्ट्रवाद और राम मंदिर मुद्दा पिछले कुछ महीनों से अपने शीर्ष पर था और बीजेपी ने स्थानीय मुद्दों को दरकिनार कर दोनों राज्यों में इन्हीं दो मुद्दों के इर्द-गिर्द अपना सियासी स्टैंड रखा। लेकिन जो परिणाम रहे उससे यह संदेश गया कि यह मुद्दा अपेक्षा के अनुरुप जनता के बीच नहीं चल सकी। इस तरह इन दोनों राज्यों ने चुनाव से राजनेताओं को जनता ने कुछ पाठ पढ़ाए हैं। जानिए इस चुनाव से क्या समझ में आया
आर्थिक मंदी
धीमी आर्थिक रफ्तार, बेरोजगारी और ग्रामीण संकट लोकसभा की तरह इसबार के चुनाव में भी मुद्दे थे। विपक्षी पार्टियों ने इन्हें उठाया भी। लेकिन इन्होंने बीजेपी का कितना नुकसान किया यह साफ नहीं। अगर लोग इनपर ध्यान दे रहे होते तो लोकसभा में 300 से ज्यादा सीटों के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में भी पार्टी सबसे बड़ा दल बनकर सामने नहीं आती।
पढ़ें: राष्ट्रीय मुद्दों पर फोकस के कारण BJP को मिले सीमित परिणाम?
जाति का मामला
कहा जाता है कि विभिन्न जातियों का एकजुट होकर नरेंद्र मोदी को वोट देना ही उनकी ताकत रहा है। इस बार भी विभिन्न जातियों ने कुछ ऐसा ही करके दिखाया। जाट या मराठा, जिन्हें कमतर आंका जा रहा था, उन्होंने भी एकबार फिर अपना महत्व दिखा दिया। शरद पवार या दुष्यंत चौटाला को मिली सीटों के पीछे भी जाति फैक्टर का बड़ा रोल है।
आर्टिकल 370
जम्मू कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाने से भारतीय जनता पार्टी को फायदा हुआ या नहीं यह साफतौर पर कहा नहीं जा सकता। इसका ठीक उत्तर खोजने के लिए यह अंदाजा लगाना होगा कि अगर बीजेपी ने राष्ट्रवाद कार्ड नहीं खेला होता तो वह कैसा प्रदर्शन करती। इस मुद्दे पर कांग्रेस नेता भुपेंद्र सिंह हुड्डा ने राहुल गांधी के खिलाफ जाकर निर्णय का समर्थन किया था। वहीं एनसीपी के शरद पवार और जेजेपी के दुष्यंत चौटाला भी इसका विरोध करने से बच रहे थे।
क्षेत्रीय खिलाड़ियों को राहत
दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ क्षेत्रियों पार्टियों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया है। चाहे वह शिवसेना हो या फिर जेजेपी। यह अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय नेताओं को राहत देगा। ये लोग उम्मीद लगा रहे होंगे कि उनके राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनाव के नतीजे भी कुछ ऐसे ही रहें।
भ्रष्टाचार का वोटर्स पर असर नहीं
ऐसा लगता है कि सीनियर नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार या विभिन्न तरह के आरोपों को लोगों ने मुद्दा नहीं माना। शरद पवार का उदाहरण हमारे सामने है। चुनाव से पहले पवार का नाम महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक घोटाले में आया। इसपर ईडी ने जांच शुरू की। इस जांच को पवार ने मराठों पर हमले के तौर पर दिखाया और लोगों का उनको साथ भी मिला।