सुस्ती या मंदीः आख़िर किसके मुहाने पर खड़ी है भारतीय अर्थव्यवस्था- नज़रिया

  • आलोक जोशी
  • वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
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पिछले कुछ समय से ये बहस लगातार गरम है कि अर्थव्यवस्था में मंदी है या नहीं. इस सवाल का जवाब हां या ना में देनेवाले बड़े बड़े खेमे हैं. दोनों खेमों के पास अपने अपने तर्क भी हैं और उनके समर्थन में आंकड़े भी. लेकिन ये पहेली सिर्फ आंकड़ों से हल होनेवाली तो है नहीं. कहा जाता है कि मंदी होती है तो चारों ओर दिखती है. दबे पांव न आती है, न जाती है.

लेकिन और किसी की न मानें, रिज़र्व बैंक की तो माननी पड़ेगी. उसके गवर्नर पहले कह चुके हैं कि उन्हें तो फ़रवरी में ही ख़बर थी कि मंदी के आसार हैं और वो तब से ही उससे मुक़ाबले के लिए तलवार भांज रहे हैं. और अब लगातार छह बार पॉलिसी रेट यानी देश भर के बैंकों को ब्याज़ का इशारा करनेवाली दर काटने के बाद भी वो कह रहा है कि बैंकों और गैर बैंकिंग माध्यम यानी दूसरी फाइनेंस कंपनियों से कॉमर्शियल सेक्टर को जानेवाली रकम में 88 परसेंट की गिरावट आई है.

यानी जहां पिछले साल 2018 में, अप्रैल से लेकर बीच सितंबर तक, सौ रुपया जाता था इस साल मात्र बारह रुपये गए. सौ रुपये में बारह रुपये सुनने में बड़ी रकम नहीं लगती, इसलिए समझिए कि वो बारह परसेंट रकम है 90,995 हज़ार नौ सौ पंचानबे करोड़ रुपये. और सौ रुपये यानी पिछले साल की रकम थी सात लाख छत्तीस हज़ार करोड़ रुपये. और जो कमी आई है यानी सौ में अट्ठासी, वो हुई छह लाख पैंतालीस हज़ार करोड़ रुपये.

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इसके साथ और भी आंकड़े हैं रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट में, लेकिन वो सारे गिनाने से बात सुलझेगी कम और उलझेगी ज़्यादा. तो आपकी दिलचस्पी हो तो अख़बारों में या रिज़र्व बैंक की साइट पर तलाश लें. यहां ज़्यादा ज़रूरी और समझने वाली बात ये है कि कॉमर्शियल सेक्टर होता क्या है. आपको लग रहा होगा कि व्यापार के लिए दिया गया सारा कर्ज़ यही तो होता है. लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है. इसमें मैन्युफैक्चरिंग यानी फैक्टरियां, फार्मिंग यानी खेती और ट्रांसपोर्ट यानी गाड़ियों का कारोबार शामिल नहीं है.

तो अब बचा क्या? बचे आपके आसपास दिखने वाले वो सारे काम धंधे जो इन तीन में शामिल नहीं हैं. सारे छोटे व्यापारी, दुकानदार, आढ़ती, और रिटेलर यानी अनाज से लेकर हार्डवेयर और फ्रिज़, टीवी या कार तक के डीलर.

दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालें तो समझ में आ जाएगा कि यही लोग हैं जिनके भरोसे अर्थव्यवस्था का चक्का चलता है, या दूसरे शब्दों में कहें तो बाज़ार में लेनदेन का चक्र चलता रहता है.

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कर्ज़ नहीं मिल रहा या नहीं ले रहे?

तो अब प्रश्न ये है कि बैंक इन्हें कर्ज़ दे नहीं रहें या ये ले नहीं रहे हैं. बजट और उसके बाद आए तीन सप्लिमेंट्स से आप ये तो समझ चुके होंगे कि सरकार पूरा दम लगा रही है कि बैंक इन्हें ही नहीं सभी को कर्ज़ दें. आपके पास भी दिन में पांच सात कॉल आते ही होंगे अलग अलग कंपनियों से या बैंकों से कि वो आपको कर्ज़ देने के लिए कितने आतुर हैं. यानी बैंक तो पैसा देना चाहते हैं और अगर ये ले नहीं रहे हैं तो उसकी वजह क्या है.

अर्थशास्त्रियों के पास इसकी कुछ पेचीदा सी वजहें हो सकती हैं. लेकिन हमें समझना ये चाहिए कि आप और हम जब भी कर्ज़ लेते हैं तो क्या सोचकर लेते हैं और कब नहीं लेते.

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कब लेते हैं कर्ज़?

हम घर का कर्ज़ लेते हैं, जब लग रहा होता है कि किराया बढ़ता जा रहा है और कर्ज़ की किस्त तो बढ़ेगी नहीं बल्कि घर का दाम बढ़ेगा, तो जब तक कर्ज़ चुकेगा काफी फायदा भी हो चुका होगा. हम कार का कर्ज़ लेते हैं क्योंकि लगता है कि किस्तों पर कार आ जाएगी, आने जाने में आराम रहेगा साथ ही स्टेटस भी बढ़ेगा. लेकिन इसके साथ एक ज़रूरी बात और है. कर्ज़ हम तभी लेते हैं जब हमें यकीन होता है कि नौकरी बनी रहेगी, तनख़्वाह न सिर्फ मिलती रहेगी बल्कि बढ़ेगी भी. जरा भी शक हुआ तो फिर आदमी सबसे पहले ईएमआई ख़त्म करने के चक्कर में लग जाता है. किस्तों से मुक्ति रहेगी तो बाकी खर्च का इंतजाम तो किसी न किसी तरह से कर लेंगे.

भारतीय रुपया

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अब इसी उदाहरण को एक व्यापारी के नज़रिए से देखिए. धंधा चल रहा है, माल आ रहा है जा रहा है, ग्राहकों की लाइन लगी है- तो उसे कोई फ़िक्र नहीं होती, बैंक से कर्ज़ लिया, और स्टॉक भरा, और ऑर्डर दिए, और माल बेचा. तरक्की की रफ़्तार बढ़ती रहती है. लेकिन अगर एक दिन माल कम बिके, फिर एक हफ़्ता ऐसा निकल जाए, तो फ़िक्र होने लगती है. पूरा महीना हो जाए तो ये चिंता बढ़ जाती है, सप्लायर के ऑर्डर कटने लगते हैं, और जोर ग्राहकों से वसूली पर लग जाता है. यहीं बैंक से कर्ज़ उठना कम होता है और तब तक कम होता रहता है जब तक कि दुकानदारी वापस तेज़ नहीं होती.

मानेसर में मारुति सुजुकी प्लांट के सामने खड़ी कारें

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क्या मंदी आ गयी है, कैसे समझें इसे?

और दुकानदारी में मंदा क्यों आता है? कौन सा वक्त होता है जब आप और हम अपने खर्च कम कर देते हैं, ज़रूरी चीजों को छोड़कर बाकी सामान की ख़रीदारी टाल देते हैं?

जाहिर है, वही वक्त जब आपको अपनी कमाई और अपने रोज़गार कि फ़िक्र होने लगती है. पता नहीं काम रहेगा या नहीं, पता नहीं वेतन मिलेगा या नहीं. बचत से कब तक काम चलेगा, और बैंक में भी तो ब्याज़ गिरता ही जा रहा है, ऐेसे में जितना बचा के चलो वही सही है.

ये बात किसी एक इंसान, एक परिवार या एक मोहल्ले की नहीं बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था में विकास के प्रति अविश्वास का संकट है. रिज़र्व बैंक ने पॉलिसी रेट में चवन्नी की कटौती की है, लेकिन साथ ही उसने जीडीपी यानी देश की तरक्की की दर में पूरे अस्सी टका यानी 0.8% की कटौती का अनुमान भी सामने रख दिया है.

शेयर बाज़ार

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उम्मीदें, वादे और मार्केट सब हवा

सरकार से जो उम्मीदें थीं बजट में वो पूरी नहीं हुईं, उसके बाद आला अफसरों और नेताओं ने सोचा कोई जादू की छड़ी घुमा दी जाए. शेयर बाज़ार के बाजीगरों ने हवा भी बना दी कि जादू चल गया. लेकिन चार दिन की चांदनी, और फिर वही सवाल. आखिर विकास को पटरी पर लाया कैसे जाए.

जैसे जैसे दिन बीतेंगे इस सवाल का जवाब मु्श्किल होता जाएगा. मै नहीं जानता कि जवाब क्या है. मैं ये जानता हूं कि मुश्किल बड़ी हो तो सबको साथ मिलकर, मशविरा करके उससे मुक़ाबला करना चाहिए.

देश में और देश से बाहर ऐसे बहुत से विद्वान और भारत प्रेमी हैं जो रास्ता निकालने में मदद कर सकते हैं. शर्त सिर्फ एक है कि कोई ये बात समझे और इन सबको साथ बैठाकर रास्ता निकालने की कोशिश करे.

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