पूर्वांचल के दो बड़े राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों को हुआ क्या है?: नज़रिया

  • आनंद प्रधान
  • आईआईएमसी प्रोफ़ेसर, बीबीसी हिंदी के लिए
बीएचयू

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यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि जब देश में टाइम्स हायर एजुकेशन (लन्दन) की ओर से जारी दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में पहले तीन सौ विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय/संस्थान के न होने और उनकी रैंकिंग में गिरावट की ख़बर सुर्ख़ियों और सम्पादकीय चिंताओं में है, उसी समय देश के दो सबसे पुराने और जानेमाने विश्वविद्यालय- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू) और इलाहाबाद विश्वविद्यालय ग़ैर-अकादमिक कारणों से सुर्ख़ियों में हैं.

बीएचयू में यौन उत्पीड़न के अभियुक्त एक प्रोफ़ेसर की बहाली के ख़िलाफ़ छात्राओं को एक बार फिर सड़कों पर उतरना पड़ा है, वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यकालीन इतिहास के एक दलित शिक्षक को अपने तीखे विचारों के कारण जान के लाले पड़े हुए हैं और वे छुपते फिर रहे हैं.

बीएचयू में छात्राओं के तीखे विरोध के कारण विश्वविद्यालय प्रशासन को मजबूरी में अभियुक्त प्रोफ़ेसर को छुट्टी पर भेजना पड़ा है लेकिन सवाल यह है कि आंतरिक जाँच समिति की रिपोर्ट में यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोपों में दोषी पाए जाने के बावजूद अभियुक्त प्रोफ़ेसर को विश्वविद्यालय की सर्वोच्च नीति निर्णायक (गवर्निंग बोर्ड) समिति- कार्यकारी परिषद ने दिखावटी 'सज़ा' देकर बहाल करने का फ़ैसला कैसे और क्यों किया था?

वैसे देश के अन्दर लगातार वैचारिक रूप से एक-दूसरे को सहन न करने और भारतीय समाज को पीछे धकेलने की बढ़ रही कोशिशों के कारण बने ज़हरीले माहौल के बीच अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों/संस्थानों की मौजूदा बदहाली और लगातार गिरावट बहुत हैरान नहीं करती है.

लेकिन देश के दो सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से आ रही ये ख़बरें और ये घटनाएं निराश और चिंतित ज़रूर करती हैं. ये बताती हैं कि अधिकांश विश्वविद्यालयों की तरह इन दोनों विश्वविद्यालयों में भी वैचारिक, सामाजिक, लैंगिक आज़ादी और खुलेपन की जगह कितनी कम होती जा रही है और लैंगिक अधिकारों को लेकर प्रशासन का नज़रिया कितना चलताऊ हो गया है.

ये मामूली घटनाएं नहीं हैं. इनसे पता चलता है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल के दो बड़े विश्वविद्यालय और एक मामले में पूरे हिंदी पट्टी के अधिकांश विश्वविद्यालय न सिर्फ़ सामंती-पितृसत्तात्मक (फ्यूडल-पैट्रीआर्कल) सोच में जकड़े हुए हैं बल्कि इन परिसरों में बौद्धिक-सामाजिक जड़ता और वैचारिक तंगनज़री बढ़ी है.

ऐसा क्यों है? इसके कई कारण हैं. एक तो देश भर में पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह का कट्टर, बुद्धि-विरोधी और समाज को पीछे लौटा ले जानेवाला (प्रतिगामी) माहौल बना है, उसका केन्द्रक (न्यूक्लियस) यही इलाक़ा है. ज़ाहिर है कि ये विश्वविद्यालय भी उससे अछूते नहीं हैं. दूसरे, इन विश्वविद्यालयों की सामाजिक संरचना शुरुआत से मोटे तौर पर सामंती-पितृसत्तात्मक सोच और ढाँचे में बंधी रही है.

इस इलाक़े के ज़्यादातर परिसरों की तरह इन दोनों परिसरों में भी हमेशा से इस इलाक़े की दबंग उच्च जातियों का दबदबा रहा है. 60 के दशक के बाद इन परिसरों में दबंग जातिवादी गिरोहों और उनसे जुड़े ठेकेदार-अफ़सरों-छात्र नेताओं और अपराधियों का बोलबाला बढ़ता गया.

विश्वविद्यालयों में छात्रों की मौजूदगी

यही दौर है जब इन विश्वविद्यालयों का राष्ट्रीय चरित्र छीजने लगा और उनका स्थानीयकरण बढ़ने लगा. विडम्बना देखिए कि ये "विश्वविद्यालय" कहने को विश्वविद्यालय रह गए जिनमें 'विश्व' तो पहले भी नहीं था, देश के अलग-अलग राज्यों से आनेवाले छात्र-छात्राओं की संख्या भी तेज़ी से गिरने लगी. इस तरह ये विश्वविद्यालय सही मायनों में 'राष्ट्रीय' भी नहीं रह गए. इन परिसरों में आसपास के कुछ ज़िलों के छात्रों ख़ासकर उच्च जाति और पुरुष छात्रों की संख्या बढ़ने लगी.

70 के दशक के उत्तरार्ध में संजय गाँधी के उभार और राजनीति के अपराधीकरण ने रही-सही कसर पूरी कर दी. इसके बाद इन परिसरों का अपराधीकरण और तेज़ी से बढ़ा जिसके पीछे भी दबंग जातिवादी-सामंती गिरोहों की मुख्य भूमिका थी. इन्हें खुला राजनीतिक संरक्षण हासिल था.

इलाबाद विश्वविद्यालय

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इन परिसरों में इन सामंती-जातिवादी अपराधी गिरोहों का दख़ल इस हद तक बढ़ता गया कि वे शिक्षकों की नियुक्ति से लेकर छात्रों के दाख़िले तक में हस्तक्षेप करने लगे. छात्रावासों में अवैध क़ब्जे होने लगे और छात्रावासों को दबंग उच्च जातियों के क़ब्जे के आधार पर पहचाना जाने लगा.

इसी दौर में इन दोनों विश्वविद्यालयों के संकायों में भी धीरे-धीरे आसपास के ज़िलों और हिंदी पट्टी से आनेवाले शिक्षकों की संख्या बढ़ने लगी. नियुक्तियों में प्रतिभा और गुणवत्ता की अनदेखी की गई और जातिवाद, भाई-भतीजावाद और क्षेत्रवाद निर्णायक हो गए. शिक्षण और शोध बेमानी से हो गए.

आश्चर्य नहीं कि आज़ादी के 72 वर्षों बाद भी इन विश्वविद्यालयों के शिक्षकों में सामाजिक-लैंगिक विविधता बहुत कम है. दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक और महिला शिक्षकों की संख्या आनुपातिक रूप से बहुत कम है.

यही नहीं, इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर इन विश्वविद्यालयों के संचालन का प्रशासनिक ढांचा और उसकी सोच भी सामंती-पितृसत्तात्मक जकड़बंदी में क़ैद नौकरशाही के हाथों में ही रही है. उसमें आधुनिक जनतांत्रिक मूल्यों और सोच का न सिर्फ़ अभाव रहा बल्कि उसके प्रति एक खुला तिरस्कार का भाव भी रहा है.

नतीजा यह कि विश्वविद्यालय को चलाने में छात्र-छात्राओं और शिक्षकों को एक महत्वपूर्ण भागीदार मानने और संवाद और सहमति के ज़रिये उसे चलाने के बजाय लम्बे समय से यह हो रहा है कि कुलपति के इर्द-गिर्द इकट्ठा शिक्षकों/अधिकारियों-कर्मचारियों का एक छोटा सा जातिवादी-सामन्ती गुट विश्वविद्यालय चलाता है.

अनुशासन के नामपर परिसरों को एक अघोषित जेल में बदल दिया गया है जहाँ प्राक्टओरियल बोर्ड को न सिर्फ फ़ौज-फांटे से लैस अनाधिकारिक पुलिस में बदल दिया गया है बल्कि उसे असीमित ताक़त दे दी गई है. यह सही है कि यह सब एक दिन, महीने या साल में नहीं हुआ है.

इन विश्वविद्यालयों में नौकरशाही हावी है और ख़ुद कुलपति नौकरशाहों की तरह व्यवहार करते हैं. वह परिसर को सामंती दबंगई और पितृसत्तात्मक अनुशासन के डंडे से हांकता रहा है. ज़ाहिर है कि उसमें छात्र-छात्राओं और उनकी मांगों, ज़रूरतों और आकांक्षाओं के प्रति तनिक भी संवेदनशीलता नहीं है.

बीएचयू

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क्या यह हैरान करनेवाली बात नहीं है कि इन दोनों विश्वविद्यालयों के सौ साल से ज्यादा के इतिहास में आज तक कोई महिला कुलपति नहीं हुई है. क्या कारण है कि मौजूदा कुलपतियों को छोड़कर ख़ासकर बीएचयू में पिछले डेढ़-दो दशक में जितने कुलपति नियुक्त हुए, वे दो दबंग सामंती जातियों के थे?

यही नहीं, बीएचयू के गवर्निंग बोर्ड- कार्य परिषद में कोई महिला प्रोफ़ेसर नहीं हैं? यह भी कि जिन विश्वविद्यालयों में 32 से 44 फ़ीसदी छात्राएं हैं, उसके कुल शिक्षकों में महिलाओं की संख्या बहुत कम है. इसके साथ ही उसके शिक्षकों और अधिकारियों में समाज के कमज़ोर वर्गों से आनेवाले ख़ासकर दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है.

कहने की ज़रूरत नहीं है कि विश्वविद्यालयों के इस प्रशासनिक ढाँचे में छात्र-छात्राओं और शिक्षकों से संवाद की कोई गुंजाइश बहुत कम है. वह किसी भी तरह से समावेशी नहीं है- न सामाजिक रूप से और न लैंगिक रूप से और न वैचारिक रूप से.

लेकिन हाल के वर्षों में दाख़िले में आरक्षण के कारण परिसरों में दलित और पिछड़े छात्रों की संख्या बढ़ी है और छात्राओं की संख्या में भी आश्चर्यजनक रूप से उछाल आया है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्राओं की संख्या कुल छात्रों का 32 फ़ीसदी तक पहुँच गई है जबकि बीएचयू में छात्राएं कुल छात्रों की 44 फ़ीसदी हो गई हैं. पिछले दस सालों में इस विश्वविद्यालय में लड़कियों के दाख़िले में 131 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है. उनके दाख़िले में वृद्धि की दर 8 फ़ीसदी थी जो लड़कों की तुलना में ज़्यादा है.

आज़ादी चाहती है लड़कियां

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अगर बीएचयू में लड़कियों के दाख़िले में वृद्धि की यह दर बनी रही तो वह दिन दूर नहीं है जब इस परिसर में लड़कियों की संख्या कुल विद्यार्थियों के 50 फ़ीसदी या उससे अधिक हो जायेगी. इन छात्राओं में अच्छा-खासा हिस्सा शहरी-औद्योगिक पृष्ठभूमि यानी रांची, धनबाद, बोकारो, जमशेदपुर, दुर्गापुर, कोलकाता, पटना आदि शहरों से आ रहा है. ये छात्राएं परिसर में सुरक्षा चाहती हैं लेकिन "सुरक्षा" के नामपर ख़ुद को जेल में बंद रखने के लिए तैयार नहीं हैं. वे बेख़ौफ़ आज़ादी चाहती हैं. वे परिसर में बिना डर और शर्म के सिर उठाकर चलना चाहती हैं.

ये छात्राएं चाहती हैं कि लड़कों की तरह उन्हें भी परिसर में कभी भी बिना किसी डर और चिंता के अपनी कक्षा, लाइब्रेरी, कैंटीन, स्पोर्ट्स ग्राउंड, छात्रावास और बाज़ार आदि सार्वजनिक स्थानों पर आने-जाने से लेकर दोस्तों से मिलने-जुलने, घूमने-फिरने, अपनी पसंद का खाने-पीने और पहने-ओढ़ने की आज़ादी हो. वे अब परिसर में दोयम दर्जे की नागरिक बनकर नहीं रहना चाहती हैं और न ही लैंगिक भेदभावपूर्ण नियमों को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. वे परिसर में और उससे बाहर भी सुरक्षा, सम्मान, बराबरी और अपने जीवन से जुड़े फ़ैसले ख़ुद करने का हक़ चाहती हैं.

लेकिन 'गहन अंध-कारा' के प्रतीक बन गए इन परिसरों में उम्मीद की किरण भी यही छात्राएं और धीरे-धीरे बढ़ती दलित-पिछड़े छात्रों की संख्या है. दरअसल, बीएचयू की छात्राओं ने एक बार फिर सड़क पर उतरकर उस मध्ययुगीन सामंती-पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती दी है जो उन्हें 'विश्वविद्यालय' के खुले और आज़ाद स्पेस में भी "भारतीय संस्कृति और परम्परा" के नाम पर यौन उत्पीड़न और लैंगिक भेदभाव के मामलों पर चुप रखना चाहता है.

वे ये मांगें आज से नहीं बल्कि पिछले कई सालों से उठा रही हैं. इससे पहले भी परिसर में यौन दुर्व्यवहार की घटनाओं के ख़िलाफ़ वे विरोध जता चुकी हैं. याद रहे 2013 में भी छात्राओं के एक बड़े समूह ने विरोध प्रदर्शन किया था. इधर पिछले डेढ़-दो सालों से वे महिला छात्रावास के बेतुके, दकियानूसी और भेदभावपूर्ण नियमों के ख़िलाफ़ लगातार मुखर रही हैं. उन्हें आपत्ति है कि जिस घर की चहारदीवारी से निकलकर वे जिस विश्वविद्यालय के खुले और आज़ाद स्पेस में अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व और पहचान बनाने आईं हैं, वहीं विश्वविद्यालय उन्हें फिर से उसी दकियानूसी सामंती-पितृसत्ता की नई चहारदीवारी में क़ैद करने की कोशिश कर रहा है.

बदलाव के अंतर्विरोध

साफ़ है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में बीएचयू और इलाहाबाद विश्वविद्यालय को 16वीं या 17वीं या उससे पहले की सोच और मानसिकता के साथ नहीं चलाया जा सकता है. इस बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका है. समय बदल रहा है, समाज और देश बदल रहा है और इसके साथ ये विश्वविद्यालय भी सामाजिक सतह के नीचे चल रहे सामाजिक उथल-पुथल (सोशल चर्निंग) से गुजर रहे हैं. यह तथ्य है कि बीएचयू के विद्यार्थियों के सामाजिक प्रोफ़ाइल में पिछले डेढ़-दो दशकों में काफ़ी बदलाव आया है. यह बदलाव 80 के दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुआ था लेकिन पिछले एक दशक में काफ़ी तेज़ हुआ है.

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इन दोनों विश्वविद्यालयों ख़ासकर बीएचयू में पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के आसपास के ज़िलों की ग्रामीण और सामंती पृष्ठभूमि से आनेवाले छात्रों की संख्या में कमी आई है. इस बीच, एक बड़ा बदलाव यह भी आया है कि परिसर में हमेशा हाशिये पर रहे और सामाजिक/शारीरिक प्रताड़ना के शिकार दलित और पिछड़े वर्गों से आनेवाले छात्र-छात्राओं की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि परिसर के जनसांख्यकीय प्रोफ़ाइल में आ रहा यह बदलाव किसी ख़ामोश क्रांति से कम नहीं है. लेकिन परिसर में आ रहे इस बदलाव के साथ कई नए अंतर्विरोध और तनाव भी पैदा हो रहे हैं.

ऐसा लगता है कि दबंग सामन्ती-पितृसत्तात्मक तत्व और उनकी दकियानूसी सोच इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं. वे इसे रोकने और अपना दबदबा बनाए रखने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए वे 'भारतीय संस्कृति' और राष्ट्रवाद की आड़ ले रहे हैं. इससे परिसरों में नए तनाव और सामाजिक-लैंगिक टकराव पैदा हो रहे हैं. इसे दबाने के लिए अनुशासन की दुहाई दी जा रही है और 'भारतीय संस्कृति' के डंडे का इस्तेमाल किया जा रहा है.

लेकिन ये परिसर और ख़ासकर छात्राएं लोकतान्त्रिक खुलेपन, व्यक्तिगत आज़ादी, समान व्यवहार और सम्मान के साथ अपनी सुरक्षा और अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग कर रही हैं. नए और युवा अध्यापक ख़ासकर दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदायों और दूसरे राज्यों से आनेवाले शिक्षक भी ऐसा माहौल चाहते हैं जिसमें उन्हें अपने क्रिटिकल और यहाँ तक कि विवादास्पद विचारों के कारण निशाना नहीं बनाया जाए. उन्हें कक्षाओं में खुली चर्चा, बहस और सवाल उठाने-सुनने की आज़ादी हो. मौजूदा घटनाओं से साफ़ है कि इन परिसरों को अब डंडे से नहीं हांका जा सकता है और न ही उसे जेल बनाने से समाधान होनेवाला है.

इन परिसरों में अगर बेहतर लिखने-पढने-शोध का माहौल बनाना है और उन्हें सचमुच, विश्वविद्यालय बनाना है तो उन्हें सामंती-पितृसत्तात्मक सोच और जकड़न और जातिवादी अपराधी गिरोहों से आज़ाद करवाना ही पड़ेगा. आज उन्हें 21वीं सदी के नए दौर और सरोकारों के अनुकूल एक संवेदनशील और समावेशी प्रशासन की ज़रूरत है.

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यह इन विश्वविद्यालयों का एक आत्मसंघर्ष भी है जिसमें नीचे से उठती नए, आधुनिक और जनतांत्रिक मूल्यों की मांग और ऊपर आक्टोपसी जकड़ जमाए बैठे दकियानूसी मध्ययुगीन सामन्ती-पितृसत्तात्मक सोच के बीच पैदा हुए इस निर्णायक टकराव से ही भविष्य की दिशा तय होगी.

(लेखक बीएचयू के छात्र यूनियन के अध्यक्ष रह चुके हैं.)

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