एक तरफ मोदी सरकार ‘जीरो बजट खेती’ को बढ़ावा दे रही है तो दूसरी तरफ कृषि वैज्ञानिकों ने इस पहल पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। कृषि वैज्ञानिकों ने इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी भी लिखी है। इस चिट्ठी में कहा गया है कि ‘अप्रमाणित’ तकनीक के जरिए ‘जीरो बजट खेती’ से न तो किसानों को फायदा होगा और नहीं ही उपभोक्ताओं को। राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी (एनएएसएस) के अध्यक्ष पंजाब सिंह ने कहा है कि ‘केंद्र को जीरो बजट खेती को बढ़ावा देने के लिए पूंजी और मानव संसाधनों का अनावश्यक निवेश नहीं करना चाहिए। हमने इस संबंध में पीएम मोदी को लिखित में अपने सुझाव दे दिए हैं जिसमें कृषि वैज्ञानिकों के विचारों को साझा किया गया है।’

मालूम हो कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में जीरो बजट खेती पर जोर दिया था। उन्होंने इसे किसानों की आय दोगुना करने की दिशा मे एक अहम कदम बताया था। नई दिल्ली स्थित एनएएसएस कृषि वैज्ञानिकों का सगंठन है। इस संगठन ने पिछले महीने ही जीरो बजट खेती पर मंथन के लिए बैठक बुलाई थी। इसमें कई अन्य संगठनों के भी डायरेक्टर शामिल हुए थे। जिनमें इंडियन काउंसिल एग्रीकल्चर रिसर्च (आईसीएआर) त्रिलोचन मोहपात्रा और नीति आयोग के सदस्य रमे चंद भी शामिल हुए थे।

एनएएसएस के अध्यक्ष के मुताबित पीएम तक अपनी बात पहुंचाने में लगभग 75 विशेषज्ञ शामिल हैं। जिनमें वैज्ञानिक, नीति निर्माता, प्रगतिशील किसान, गैर सरकारी संगठन और उर्वरक, बीज और फसल सुरक्षा रसायन उद्योग के प्रतिनिधि शामिल हैं। हमने जोरी बजट खेती पर गहन अध्धयन किया जिसमें हमें पता चला कि इससे किसानों को ज्यादा फायदा नहीं होगा और साथ ही यह कृषि को बढ़ावा देने के लिए कोई अच्छा विकल्प नहीं है।

क्या है जीरो बजट खेती: खेती पूरी तरह से प्राकृतिक तरीके पर निर्भर करती है। खेती के लिए जरूरी खाद-पानी और बीज आदि का इंतजाम प्राकृतिक रूप से ही किया जाता है। इसमें केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता। हालांकि इसमें ज्यादा मेहनत के साथ कम लागत लगती है और बिना किसी केमिकल के इस्तेमाल के जो फसल प्राप्त होती है उसके मार्केट में काफी अच्छे दाम मिलते हैं। इसलिए इसे ‘जीरो बजट’ कहा गया है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और अन्य दक्षिण भारत राज्य में यह पहले से ही काफी प्रसिद्ध है।