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जनसंख्या नियंत्रण में मुस्लिम महिलाएं पहले से हुईं बेहतर?

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक मुसलमानों की नई पीढ़ी परिवार नियोजन के दिशा में काम कर रही हैं हालांकि उनके आंकड़े अब भी हिन्दुओं से ज्यादा हैं.

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जनसंख्या नियंत्रण में मुस्लिम महिलाएं (फोटो-प्रतीकात्मक तस्वीर)
जनसंख्या नियंत्रण में मुस्लिम महिलाएं (फोटो-प्रतीकात्मक तस्वीर)

जनसंख्या विस्फोट भारत में एक पुराना मसला है लेकिन ये एक बार फिर सुर्खियों में तब आ गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त के भाषण में लाल किले से इसका जिक्र किया. आजादी की 73वीं वर्षगांठ पर देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि जिन्होंने अपने परिवार को छोटा रखा है, वो सम्मान के हकदार हैं और उनकी ये कोशिश देशभक्ति है.

बार-बार ये कहा जाता है कि देश में मुसलमानों की आबादी जल्द हिन्दुओं से ज्यादा हो जाएगी. इस भ्रामक जानकारी के चलते कई बार कुछ नेताओं ने हिन्दुओं को 4 बच्चे पैदा करने की नसीहत भी दे दी थी.

इंडिया टुडे डाटा इंटेलिजेंस यूनिट ने पाया कि मौजूदा वक्त में मिले आंकड़े ऊपरी कही गई बात को सही नहीं ठहराते. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक मुसलमानों की नई पीढ़ी परिवार नियोजन के दिशा में काम कर रही हैं हालांकि उनके आंकड़े अब भी हिन्दुओं से ज्यादा हैं.

गर्मधारण की घटती दर

उम्र के हिसाब से जनसंख्या की तुलना में एक महिला अपने जीवन काल में कितने बच्चे जन्म देती है या गर्भधारण करती है, विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO के मुताबिक 'टोटल फर्टिलिटी रेट' ( TFR) का आंकलन उसी के आधार पर किया जाता है. भारत में सभी समुदायों में टीएफआर घटा है. हिन्दू मुसलमानों में भी ये अंतर समय के साथ घट रहा है.

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राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर (1992-93) 4.4 थी जो 1998-99 में गिरकर 3.6 रह गई. 2005-06 में घटकर 3.6 रह गई और अब 2015-16 में 2.6 है.

हिन्दुओं के मुकाबले मुस्लिम महिलाओं में प्रजनन दर हमेशा से ज्यादा रही है लेकिन अब ये अंतर घट रहा है.

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1992-93 में हिन्दू और मुसलमानों में प्रजनन दर में 1.1 बच्चे का अंतर था. यानी एक मुसलमान महिला एक हिन्दू के मुकाबले 33 फीसदी ज्यादा बच्चे पैदा करती थी. ये अंतर 2015-16 में घटकर .5 रह गया. यानी अब एक हिन्दू महिला के मुकाबले एक मुसलमान महिला 23.8 फीसदी ज्यादा बच्चे पैदा करती है.

ऐसा कैसे संभव हुआ

मां बनने की उम्र बढ़ने और बच्चों के बीच अंतर के जरिए

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक कई देशों में मां बनने की उम्र बढ़ाकर और दो बच्चों के बीच अंतर को बढ़ाकर कई देशों में प्रजजन दरों को कम किया गया है. हमने पाया कि ऐसा भारत में भी देखा जा रहा है.

जहां 1992-93 में हिन्दुओं में मां बनने की औसत आयु 19.4 थी वहीं मुसलमान 18.7 साल की उम्र में ही मां बन जाती थीं. 2015-16 में हिन्दुओं की औसत उम्र 21 तक पहुंच गई लेकिन मुसलमान भी पीछे नहीं रहे वो भी अब औसतन 20.6 साल की उम्र में ही मां बन रही हैं.

न सिर्फ पहली बार मां बनने उम्र बल्कि दो बच्चों के बीच अंतर भी दोनों समुदायों में बढ़ी है. इसमें मुसलमानों ने थोड़ा बेहतर अंतर दिखा है.

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 2005-06 और 2015-16 में जहां हिन्दू महिलाओं के बीच ये अंतर 2.5 फीसदी बढ़ा वहीं मुस्लिम महिलाओं में ये 3.75 फीसदी बढ़ा है, औसतन 2005-06 में हिन्दू महिलाएं दो बच्चों में 31.1 महीने का अंतर रखती थीं वहीं मुस्लिम महिलाओं में अंतर 30.8 महीने का था. 2015-16 में हिन्दू महिलाएं 31.9 महीने का अंतर रखने लगीं तो मुस्लिम महिलाओं में ये अंतर 32 महीने तक पहुंच गया. जो हिन्दुओं से .1 ज्यादा है.

अनियोजित गर्भावस्था में कमी

मुस्लिम महिलाओं में अनियोजित गर्भावस्था में भी कमी आई है. कुल प्रजनन दर और नियोजित प्रजनन में अंतर ही अनियोजित गर्भावस्था के आंकड़े मिलते हैं.

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मिसाल के तौर पर 2005-06 में मुस्लिम महिलाओं का कुल प्रजजन दर 3.4 थी जबकि नियोजित प्रजजन दर के आंकड़ा 2.2 था. दोनों के बीच अंतर 1.2 बच्चों का था. वहीं हिन्दू महिलाओं में ये आंकड़ा 0.69 बच्चा प्रति महिला था.

2015-16 में मुस्लिम महिलाओं में ये दर घटकर 0.6 हो गया जबकि हिन्दुओं में ये आंकड़ा 0.29 पहुंच गया.

प्रजजन दर पर असर

घटती प्रजनन दर का असर समुदाय की जनसंख्या पर भी पड़ा है. 1991 में मुस्लिम प्रजजन दर 4.4 थी, मुस्लिम आबादी 32.88 फीसदी बढ़ी थी (जनगणना). 2011 में मुस्लिमों की कुल प्रजजन दर 3.6 थी और ये 29.52 फीसदी बढ़े. 10 साल में कुल प्रजजन दर 3.4 पर पहुंच गई औऱ उनकी बढ़त भी घटकर 24.6 फीसदी पर पहुंच गई.

हालांकि मुसलमानों की जनसंख्या घटी है लेकिन उनकी बढ़त अब भी हिन्दुओं से ज्यादा है.

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शादी में देर और गर्भपात

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन स्ट्डिज के प्रोफेसर संजय कुमार के मुताबिक मुख्य रूप से तीन वजहों के चलते भारत में प्रजनन दरें घटी हैं.

'पहली वजह, महिलाओं की शादी की उम्र में बदलाव. महिलाओं की शादी की औसत उम्र बढ़ी है. दूसरी वजह गर्भपात. अब कई महिलाएं मर्जी से गर्भपात करवा पा रही हैं, तीसरा गर्भनिरोधक का इस्तेमाल. हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर कुछ राज्यों में इसका इस्तेमाल घटा है.'

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मुसलमान समुदाय में सामाजिक बदलाव

इतिहासकार और लेखक राना सफी मानती हैं कि मुस्लिम परिवारों में अब दूसरे समुदायों की तरह आर्थिक व्यवस्था सुधारने और अच्छी शिक्षा पर जोर है.

'बंटवारे के घावों से उबरने में उन्हें वक्त लगा. जमींदारी खत्म होने के बाद कई मुस्लिम परिवार मुश्किल में फंस गए क्योंकि उनकी संपत्ति शत्रु संपत्ति घोषित हो गई( क्योंकि परिवार के कुछ लोग पाकिस्तान चले गए और कुछ रह गए). ज्यादातर मुसलमान पढ़ाई से दूर रहे क्योंकि उनको लगता था कि नौकरी करना उनका काम नहीं है . यही वजह है कि ज्यादातर मुसलमानों की पहली पीढ़ी पढ़ाई कर रही है और घर की महिलाएं ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रही हैं.'

 तरक्की फाउंडेशन की प्रोजेक्ट मैनेजर फरहीन नाज भी मानती हैं कि मुसलमानों में परिवार छोटे रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है. इनका एनजीओ गरीबों को शिक्षा और ट्रेनिंग देने का काम करता है.

'सलमानों की सोच में बदलाव आया है खास तौर से परिवार नियोजन को लेकर. अगले हमारे मां बाप के दौर को देखें तो वो 4 से 5 बच्चे पैदा करते थे जबकि अब सिर्फ 2 या 3 बच्चों का ही चलन है, बच्चियों की पढ़ाई पर खास जोर है जिससे लोगों की सोच में बदलाव आया है.'

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राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक अब मुस्लिम महिलाएं 21 की उम्र में मां बन रही हैं. नाज का मानना है कि ऐसा उच्च शिक्षा के चलते हो रहा है.  उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वे 2018 कहता है कि कि जहां उच्च शिक्षा में 2013-14 में 24 फीसदी दाखिला था वो मुसलमान महिलाओं में बढ़कर 47 हो गया है जो राष्ट्रीय औसत का करीब करीब दोगुना है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ये भी दिखाता है कि उच्च शिक्षा का बढ़ता स्तर, परिवार नियोजन और नियोजित गर्भधारण में भी सुधार हुआ है.

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