राजकुमारी

जड़ता, रूढ़िवादिता, स्थिरता जैसी नकारात्मक मानसिक स्थितियों के विखंडित होने का समय तभी आता है, जब आप वैचारिकता का दामन कस कर पकड़ते हैं और चिंतन की ओर अग्रसर होते हैं। किसी मसले पर होने वाली बात या फिर उठने वाले सवाल पर तपाक से पत्थर या फिर फूल से शब्द बना कर फेंकना और उसे लपकना मुश्किल हो जाता है। यों हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में इस तरह के न जाने कितने शब्द टकराते हैं। लेकिन मैं आमतौर पर बोले जाने वाले एक शब्द ‘कपल’ की बात साझा करना चाहती हूं। इस पर विचार करते हुए यही लगा कि आखिर कब हम जंग लगी बुद्धि को सफाई अभियान के तहत लाकर कूड़ा बाहर फेंकेंगे। यहां बात वैसे व्यक्ति की है जो अंग्रेजियत से नाता तो जोड़ बैठा है, पर उसके संदर्भों को समझना जरूरी नहीं मानता। अगर जुबान पर ‘ऑस्सम’ या ‘नाइस’ न रहे तो कैसे दिखाएं ‘इंग्लिश-विंग्लिश’!

खैर, जैसे ही कोई कहता है ‘ब्यूटीफुल कपल’ तो उससे गहरा रोमांच झलकता है। जो असल में ‘कपल’ हैं, वे बाग-बाग हो जाते हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर देखें तो इस शब्द के अर्थ की समझ बड़ी तुच्छता लिए है। कोई पुरुष और स्त्री एक साथ दिखे नहीं कि उसे ‘कपल’ मान लिया, इल्म और अदब दिमाग से फुर्र हो गया। जमाने से दिमाग के बाइस्कोप में दो विपरीतलिंगी व्यक्ति की चिपकी तस्वीरों को देख कर एक ही खयाल का वेग से आना- ‘प्रेमी जोड़ा’। इससे इतर भाई-बहन, दोस्त, गुरु-शिष्या, सहकर्मी, सहपाठी- यानी सब रिश्तों पर हावी एक स्थायी विचार रिश्तों का गुड़-गोबर कर देता है।

उम्र, हाव-भाव, तस्वीरों में खड़े होने का तरीका, सबको पीछे छोड़ और अक्ल को घास चरने भेज कर मंदबुद्धि लोग चलते-चलते कह जाते हैं और फिर सफाई देते हैं तस्वीर में मौजूद लोग। सुनने वाले दोस्त हैं तो ठहाका मार कर हंस लेते हैं। तब आानंद से मन के पांव थिरकने लगते हैं जब वाकई प्रेमी ही ‘कपल’ होते हैं। एक दूसरे से नजदीकी सिद्ध करने के चक्कर में सार्वजनिक स्थान के खयाल से भी ऊपर उठ कर अपने प्रेम को अभिव्यक्त करते हैं। हाथों की अंगुली मुट्ठी में और अत्यधिक कसावट, सुंदरता में बनावट की मिलावट। यानी दो शब्द क्या-क्या न कराए! लेकिन अगर वे बहन-भाई हुए तो जिज्ञासा रखने वाले झल्ला जाते हैंं, मानो जुबान जल जाए। इसके बाद तो पुरुष और स्त्री का साथ बाहर निकलना हुआ तो नियम और शर्तें लागू समझिए, वरना साथ बाहर न निकलने का ऐलान।

इस दौर में असमंजस की स्थिति बड़ी विचित्र है। लड़के-लड़कियों में बढ़ती आधुनिक भेड़चाल, खड़े होने और बैठने की बेढंगी मुद्राएं, बेलगाम व्यवहार, आम बातचीत में गाली-गलौज। ये सभी कारण हैं जिसकी वजह से सामान्य लोग इस प्रचलित शब्द को वरीयता देने लगे। फिर यह बार-बार उपयोग में आने लगा। शब्दों को जुबान से बाहर धकेलने का काम आमतौर पर पार्कों, भ्रमण वाले सार्वजनिक स्थानों, रेस्तरां, मेट्रो की सीढ़ियों आदि पर भी फैलता दिखता है। ऐसे युवा जिनकी जींस पैंट से लगता है कि अब निकल कर गिर जाएगी, वे किसी प्रवाह से गुजरते आसपास के माहौल से बेखबर बेफिक्र लगते रहते हैं! फिर कुछ सोच कर बोलने की गुंजाइशें खत्म ही समझिए।

धीरे-धीरे सोशल मीडिया के मंचों का विस्तार ही हो रहा है। लेकिन इस पर मौजूद दो ठीक-ठाक से दिखने वाले लोग कभी मिले हों किसी मौके पर और उनकी तस्वीरें उनकी वाल पर दिखे तो भी अनुमान से ही इस तरह के शब्द धड़ल्ले से चिपका दिए जाते हैं। ऐसा बोलने वाले बोल कर निकल जाते हैं, उसमें उलझे रहते हैं वे, जिन्होंने अपनी वाल पर तस्वीर डाली होती है। ऐसे में कई बार स्थिति बिगड़ जाने की पूरी गुंजाइश होती है। किसी की नासमझी बेवजह ही भावनात्मक रिश्तों में दरार का कारण भी बन जाती है। इसलिए बिना लगाम के ‘कपल’ शब्द का प्रयोग करने वाले के बजाय ऐसे लोगों के बीच मजबूत रिश्ते के लिए जरूरी है ऐतबार, समझदारी और सूझ-बूझ। समझदारी हो तो रिश्ता बच जाए और दूसरा न सुने तो बिखर भी जाए। विचारों में नजाकत बाकी होगी, तभी ‘कपल’ शब्द के मायने समझ सकेंगे। वरना यह शब्द नाइत्तिफाकी के कठघरे में खड़ा रहेगा। इसलिए इसका इस्तेमाल करने से पहले एहतियात बरतना जरूरी है। इस बात का इल्म होना चाहिए कि इस शब्द का सुनने वाले पर क्या प्रभाव पड़ सकता है या किस प्रकार उनके निजी जीवन को प्रभावित कर सकता है।

हमने खूब सुना होगा कि कमान से निकला तीर और मुंह से निकले शब्द वापस नहीं आते। तो शब्द अपनी अर्थवत्ता खो दे, उससे पहले शब्दों का प्रयोग सही रूप में समझदारी से करने की जरूरत है। अनुचित प्रयोग किसी का अनर्थ करा दे सकता है। पहले तोला जाए, फिर बोला जाए। शब्दों का अपना सौंदर्य है जो खोने न पाए। यानी इल्तजा यह है कि ‘कपल’ न कहें तो भी चलेगा, मगर गलत उपयोग न करें। किसी भी शब्द का प्रयोग अपनी बुद्धिमता से करें, क्योंकि व्यक्ति और शब्दों की गरिमा, दोनों को बचाना महत्त्वपूर्ण है।