किसी भी देश की राजनीतिक स्थिरता आर्थिक विकास के लिए बोनस की तरह होती है, पर हाल के दिनों में कुछ ऐसी खबरें आई हैं जो इंगित करती हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था संकट की राह पर बढ़ रही है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2018-19 में देश की जीडीपी विकास दर 6.8 प्रतिशत रही है जो बीते पांच सालों में सबसे कम है। आर्थिक गतिविधियों के दो बड़े क्षेत्र- कृषि और विनिर्माण- गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। कृषि क्षेत्र में तो वृद्धि दर 2019 की पहली तिमाही में -0.1 प्रतिशत रही।

निवेश को बढ़ाने के लिए सरकार ने कई तरह के प्रयत्न किए हैं पर अब भी हालात सुधरते नहीं दिख रहे हैं। वित्त वर्ष 2018-19 में मुश्किल से 9.5 लाख करोड़ के निजी निवेश के आवेदन मिले जो 2004-05 के बाद चौदह वर्षों में न्यूनतम है। जीडीपी के लिहाज से विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत फिर फिसल कर सातवें स्थान पर आ गया है। इसके साथ ही 2019 की पहली तिमाही में भारत ने सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का तमगा भी गंवा दिया है।
निवेश के साथ ही उपभोग की मोर्चे पर भी स्थिति बिगड़ती हुई ही दिखाई दे रही है। घरेलू यात्री वाहनों की बिक्री पिछले वर्ष की तुलना में 20.55 प्रतिशत घट गई। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश में बेरोजगारी दर बीते 45 सालों में सर्वाधिक है।

राजकोषीय मोर्चे पर भी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं रही है, हालांकि सरकार ने कतिपय प्रयत्नों जैसे कि सरचार्ज, सेस लगाकर और विभिन्न सरकारी एजेंसियों के बजट में कटौती करके राजकोषीय घाटे को स्थिर बनाए रखने की कोशिश जरूर की है। निवेश को आकर्षित करने और लोगों को अत्यधिक कर्ज देने के उद्देश्य से बीते दिनों में रिजर्व बैंक ने लगातार चौथी बार रेपो रेट में कमी करके उसे 5.40 फीसद पर ला दिया है। हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से भले ही गुजरती दिखाई पड़ रही हो मगर किसी बहुत बड़े भंवर या संकट की स्थिति में नहीं है। ऐसे में सरकार कुछ बड़े और कड़े फैसले लेकर भारत की आर्थिक वृद्धि दर को फिर बढ़ा सकती है।
’शिव शंकर यादव, इलाहाबाद विश्वविद्यालय