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श्रम कानूनों में सुधार: क्या सभी बुराइयों के लिए सिर्फ कड़े कानून जिम्मेदार हैं?

भारत में कड़े, जटिल और अलग-अलग उद्यमों पर लागू अलग-अलग श्रम कानूनों को तमाम समस्याओं का जिम्मेदार ठहराया जाता है. किसी यूनिट में कितने कर्मचारी हैं, इस आधार पर विभिन्न कानून लागू होते हैं. नए अध्ययन में सामने आया है कि कड़े और जटिल कानूनों की मौजूदगी में भी संगठित क्षेत्र और लघु उद्यमों में कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम में बढ़ोत्तरी हुई है.

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प्रतीकात्मक फोटो
प्रतीकात्मक फोटो

  • छोटे उद्योग विकसित होकर मझौले उद्योगों में तब्दील नहीं हो पाते
  • श्रम कानूनों में मालिकों की सहूलियत के लिहाज से सुधार किया गया
  • कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स की संख्या में तेजी से हो रही है बढ़ोतरी

नए अध्ययन में सामने आया है कि कड़े और जटिल कानूनों की मौजूदगी में भी संगठित क्षेत्र और लघु उद्यमों में कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम में बढ़ोत्तरी हुई है.

भारत में कड़े, जटिल और अलग-अलग उद्यमों पर लागू अलग-अलग श्रम कानूनों को तमाम समस्याओं का जिम्मेदार ठहराया जाता है. किसी यूनिट में कितने कर्मचारी हैं, इस आधार पर विभिन्न कानून लागू होते हैं. बड़े पैमाने पर कॉन्ट्रैक्ट आधारित नौकरियां देना हो, कम वेतन हो, सामाजिक असुरक्षा हो, या फिर दूसरी समस्याओं की बात हो, इन सब के लिए कानूनों की जटिलता को दोष दिया जाता है.

भारत में छोटे उद्यमों की अधिकता है, लेकिन छोटे उद्योग विकसित होकर मझौले उद्योगों में नहीं तब्दील हो पाते. जबकि ऐसा हो तो इससे रोजगार ज्यादा पैदा होगा. ऐसा न होने के लिए भी जटिल कानून का ही हवाला दिया जाता है. नये अध्ययनों में सामने आया है कि यह सच नहीं है यानी इन समस्याओं के लिए मौजूद जटिल कानूनों को दोष देना ठीक नहीं है.

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कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम और श्रम कानून

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन (ICRIER) की प्रो. राधिका कपूर अपने हालिया अध्ययन में कहती हैं कि श्रम कानूनों की जटिलता की वजह से कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम (ठेका प्रथा) बढ़ रहा है, ऐसा नहीं है. प्रो. कपूर ने एनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्री (ASI) का 2000-01 से लेकर  2013-14 तक का आंकड़ा इस्तेमाल किया है.

उनका कहना है कि श्रम कानून अब उतने जटिल नहीं रहे, तब भी कॉन्ट्रैक्ट वर्कर की संख्या तेजी से बढ़ी. इसके पक्ष में वे तर्क पेश करती हैं कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र ने हाल के वर्षों में अपने श्रम कानूनों में मालिकों की सहूलियत के लिहाज से सुधार किया है. इसके बाद इन राज्यों में कॉन्ट्रैक्ट वर्करों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ गई. दूसरा, श्रम प्रधान उद्योगों के बजाय पूंजी प्रधान उद्योगों में कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स की संख्या बढ़ी, जबकि जटिल कानूनों की वजह से ऐसा नहीं होना चाहिए था.

तीसरा, पिछले दशक में कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरियां देने के मामले काफी उछाल आया है, क्योंकि इस दौरान स्थायी नौकरियों में वेतन कॉन्ट्रैक्ट नौकरियों की तुलना में डेढ़ गुना ज्यादा रहा. वे कहती हैं कि मालिक ठेके पर नौकरियां इसलिए देता है, क्योंकि ठेका सिस्टम के जरिए स्थायी कामगारों पर दबाव बनाया जा सकता है. वे मोलभाव करने की हालत में नहीं रहते और उनकी तनख्वाहें कम रखी जाती हैं.

संगठित क्षेत्र में मध्यम उद्योगों की कमी

कहा जाता है कि संगठित क्षेत्र में मध्यम आकार के उद्योगों की कमी है. इसके लिए कठोर और जटिल कानून जिम्मेदार हैं. अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के प्रो. आर नागराज का 2018 का अध्ययन इसकी असलियत का खुलासा करते हुए कहता है कि आधिकारिक रजिस्ट्रेशन में व्यापक गड़बड़ी और आंकड़ों में हेरफेर, अंडर-रिपोर्टिंग या गलत व्याख्या के कारण ऐसा है.

प्रो. नागराज कहते हैं कि यह गलत पैमाइश का मामला है. वे कंपनियां जिनमें 10 या इससे ज्यादा कर्मी होते हैं या बिजली का इस्तेमाल करती हैं, वे फैक्ट्रीज एक्ट 1948 के तहत रजिस्टर होती हैं. आर्थिक सर्वे और एएसआई के आंकड़ों की तुलना करें तो 1981 में 10 या इससे ज्यादा कर्मचारियों वाली 52% फैक्ट्रियां रजिस्टर नहीं थीं. 1991 में यह आंकड़ा 57% और 2013-14 में 66% हो गया. लेकिन ये कंपनियां कुल उत्पादन में मात्र 1 प्रतिशत का योगदान देती हैं. ऐसा लेबर रेग्युलेशन और उनके लागू करने में भ्रष्टाचार के कारण है.

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नियमों के घटिया क्रियान्वयन का एक और उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि जिन फैक्ट्रियों में 100 या इससे ज्यादा कर्मी हैं, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट1947 के तहत छंटनी या कंपनी बंद करने के लिए सरकार की पूर्व अनुमति चाहिए होती है. 1997-2003 में संगठित क्षेत्र के हर 6 में से 1 वर्कर ने अपनी नौकरी गवां दी और यह नियम सिर्फ कागजों पर बना रहा. इसके बाद 2008-09 में आई मंदी के दौरान भी संगठित क्षेत्र में भारी संख्या में लोगों ने नौ​करियां गंवाई.

वे कहते हैं कि अगर श्रम कानून वास्तव में बड़े जटिल हैं तो संगठित निर्माण क्षेत्र में उत्पादन बढ़ने के साथ लोगों की वास्तविक आय में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए थी. लेकिन 1970 के बाद से ही आंकड़ें तो कुछ और कहानी कहते हैं. जब निर्माण क्षेत्र में श्रम उत्पादकता करीब 6% की दर से बढ़ी, वास्तविक आय में 1.2% की कमी आ गई.

उनके मुताबिक, औपचारिक नियम कानून और श्रमिकों की वास्तविक समस्याओं का आपस में कोई संबंध नहीं है, क्योंकि कानूनों में तमाम खामियां रखी गई हैं जिससे फैक्ट्री मालिकों की राह आसान हो सके. इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि अलग-अलग कानूनों में वर्कर की परिभाषा ही अलग-अलग है.

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आईआईटी दिल्ली के प्रो. जयन जोश थॉमस भी अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के 2019 के अध्ययन में ऐसे ही सवाल उठाते हैं. वे लिखते हैं कि मालिकों के पास श्रम कानूनों को ठेंगा दिखाने के कई रास्ते हैं, जबकि सरकारें उनका क्रियान्वयन कराने की इच्छुक नहीं दिखती.

वे बेंगलुरु में गारमेंट फैक्ट्र्रीज में काम करने वाली महिलाओं पर 2018 में हुए अध्ययन का हवाला देते हुए कहते हैं कि मालिक ग्रेच्यूटी न देने के लिए तमाम तरह के बहाने खोज लेते हैं. मालिक श्रमिकों को अपना पुराना कॉन्ट्रैक्ट रद्द करके नए कॉन्ट्रैक्ट पर ज्वॉइन करने को मजबूर करते हैं ताकि कानूनन उनकी कोई जवाबदेही न बने.

कानूनी सुरक्षा में ढील

इन्हीं कारणों के चलते ट्रेड यूनियन और अर्थशास्त्री सरकार की मंशा पर गंभीर चिंता जता रहे हैं. सरकार नए कोड में इंडस्ट्रियल डिसप्यूट एक्ट 1947, फैक्ट्रीज एक्ट 1948 और कॉन्ट्रैक्ट लेबर (रेग्यूलेशन एंड एबो​लशन) एक्ट 1970 के लागू होने की सीमाओं में ढील दे रही है. उनकी चिंता है कि इसके चलते पहले से ज्यादा कामगार असुरक्षा का सामना करेंगे. इससे उनके हितों पर हमला करना मालिकों के लिए आसान हो जाएगा.

ट्रेड यूनियन CITU के नेता तपन सेन कहते हैं कि फैक्ट्रीज एक्ट में ढील देने से संगठित क्षेत्र के 70% से ज्यादा कामगार कानूनी सुरक्षा के दायरे से बाहर चले जाएंगे.

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जमशेदपुर स्थित XLRI के जेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के प्रो. केआर श्याम सुंदर कहते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 में बदलाव के चलते भारी संख्या में कामगार कानूनी सुरक्षा के दायरे से बाहर हो जाएंगे. कामगारों का वेतन, सुरक्षा, स्थायित्व आदि खतरे में पड़ेगा, ठेका प्रथा को और बढ़ावा मिलेगा.

अब देखना यह है कि तमाम श्रम कानूनों की जगह चार लेबर कोड लाने जा रही सरकार इन सब चुनौतियों से कैसे निपटेगी?

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