भारत लोकतांत्रिक देश है। इसका पंथनिरपेक्ष संविधान देश के सभी लोगों को समान भाव से देखता है। ऐसे में देश को दो खांचों में बांटने वाले शब्दों अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की वर्तमान प्रासंगिकता पर सवाल उठने लगे हैं। इन शब्दों के आधार पर लोगों की पहचान की परिपाटी को बंद किए जाने का विमर्श पूरे देश में तेज हो चुका है। इस पूरे मसले पर पूर्व केंद्रीय मंत्री और वर्तमान मेंसे समाचार संपादक अरविंद चतुर्वेदी ने विस्तृत बातचीत की। पेश है मुख्य अंश:भारत जैसे पंथनिरपेक्ष संविधान वाले लोकतांत्रिक देश में...
—यह सही है कि हमारे संविधान में अल्पसंख्यक शब्द प्रयोग किया गया है लेकिन यह देखना महत्वपूर्ण है कि उसका संदर्भ विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाये रखने के अधिकार से संबंधित है। अगर इसी के साथ आप अनुच्छेद 30 को पढ़ें तो धर्म और भाषा के आधार पर किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा उनके प्रशासन का अधिकार प्राप्त होगा। लेकिन लगभग यही अधिकार अनुच्छेद 26 में भारतीय नागरिकों के किसी भी अनुभाग को प्राप्त है।अनुच्छेद 29 तथा 30 संविधान के भाग 3 अर्थात मूल अधिकारों का...
एक राजनीतिक पृथक चुनाव प्रणाली तथा दूसरे सामाजिक अस्पृश्यता। हमारी संविधान सभा का मानना था कि इन दो बीमारियों के कारण भारत अंदर से कमजोर हुआ और परिणामस्वरूप ग़ुलाम बना और विभाजन का घाव ङोलना पड़ा। अगर हम इतिहास से कोई सबक लेना चाहते हैं तो हमें भाषा के बारे में भी यह ध्यान रखना पड़ेगा कि हम वह भाषा बोलें जिससे एकता का भाव बढ़े। वह भाषा जिससे सांप्रदायिकता बढ़ती है, वह हानिकारक है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पृथक अपने आप को अल्पसंख्यक मान लेने का मतलब है कि बावजूद संवैधानिक बराबरी के मैं अपने...
—भारतीय जीवन शैली हमारी सांस्कृतिक विरासत है और हमारे संविधान के प्रावधानों में परिलक्षित होती है। आप पूरे विश्व की संस्कृतियों पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि हर संस्कृति मूलवंश, भाषा या मध्यकालीन युग आते आते धार्मिक आस्था से परिभाषित होती थी तथा किसी भी सांस्कृतिक क्षेत्र में वही लोग रहते थे। आज जो दुनिया हम देख रहे हैं जहां विविधता के लिए स्वीकार्यता बनी है उसकी आयु 150-200 वर्ष भी मुश्किल से...
दूसरी ओर भारत में कई हजार साल पहले हमारे ऋषियों ने जो मान्यताएं या परंपराएं बनाईं उनमें विविधता को न केवल एक नैसर्गिक नियम के तौर पर स्वीकार किया गया बल्कि उसके लिए समान भाव पैदा किया गया तथा उसको समाज की संपन्नता के स्नोत के रूप में भी देखा गया। हमारी सांस्कृतिक यात्र ‘एवं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ के उद्घोष के साथ आरंभ हुई। हमारे यहां आज भी हम यह देख सकते हैं कि एक ही परिवार के सदस्य अलग देवी या देवों के माध्यम से ईश आराधना करते हैं। अब से दो हजार साल से भी पहले जब यहूदी ईसाई या इस्लाम के...
KeralaGovernor 1935 संविधान की देन ! विभाजनोत्तर भारत की आवश्यकता नही !
KeralaGovernor Perfectly said
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