समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के ग्रह खराब चल रहे हैं। कम उम्र में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही साल में अपनी पार्टी के प्रमुख बनने के बाद प्रदेश में ही नहीं देश में भी उनकी अलग छवि बनी थी। वास्तव में कांग्रेस के अलावा जिन दलों को लोग भाजपा के मुकाबले देख रहे थे उसमें सपा का नाम प्रमुख था। बावजूद इसके अखिलेश यादव ने कभी देश में भाजपा का विकल्प देने का ढिंढोरा नहीं पीटा अपनी पार्टी के कई नेताओं के विरोध के बावजूद। दावे से कम सीटें लेकर बसपा के साथ देश के सबसे बड़े प्रदेश में साझा चुनाव लड़ना तय किया। अपने में से तीन सीटें रालोद को दीं और कांग्रेस के दो प्रमुख नेताओं की सीटों पर उम्मीदवार खड़े नहीं किए।

भारी राजनीतिक विरोध के बावजूद बसपा प्रमुख मायावती को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया। चुनाव नतीजे गठबंधन के पक्ष में नहीं आए और जिस बसपा को पिछली बार एक सीट न मिली थी उसे दस सीट मिली। सपा पांच सीटों पर ही जीत पाई, उसमें भी सपा प्रमुख की पत्नी डिंपल यादव की सीट भी नहीं मिली। कारण चाहे चाचा शिवपाल रहे हों या भाजपा की आंधी, लेकिन एक तो हार मिली ऊपर से बसपा प्रमुख ने हार का ठीकरा अखिलेश पर फोड़ते हुए उनसे गठबंधन तोड़ लिया। पिता मुलायम सिंह यादव सहित पार्टी का एक धड़ा गठबंधन से नाराज था। अब अखिलेश यादव के कार्यकाल में हुए खनन घोटाले के आरोपियों पर सीबीआइ के छापे डलने लगे।

कहा जा रहा है कि सीबीआइ ने अखिलेश यादव को घेरने की तैयारी काफी दिन से कर रखी है, बस मौके की तलाश है। चुनावी नतीजों के बाद मायावती के आरोपों पर तो अखिलेश खुल कर नहीं बोल पा रहे हैं, अब खनन घोटाले पर तो खुलकर मैदान में आना होगा। नहीं तो कहीं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव जैसा मामला कहीं शुरू होकर कहीं न पहुंचा दिया जाए।