अखिलेश यादव, एमके स्टालिन, अभिषेक बच्चन और अंबानी…। अमेरिका के बर्कले में इन नामों को लेते हुए कांंग्रेस नेता राहुल गांधी ने भारत में वंशवाद पर कहा था कि आप सब सिर्फ मेरे पीछे क्यों पड़े हैं। मुल्क का ज्यादातर हिस्सा इसी तरह चलता है। भारत इसी तरह काम करता है…। यह वह समय था जब राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद नहीं संभाला था। दिसंबर 2017 में कांग्रेस को हवा का रुख अपनी तरफ लगने लगा तो राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया। लेकिन लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

राजा का बेटा राजा की परंपरा वाले इस देश में डॉक्टर की संतान डॉक्टर और वकील की संतान वकील होने की आम बात की तरह नेता की संतान के नेता बनने को एक मौन स्वीकृति सी दे दी गई है। वंशवाद का तूफान तभी उठता है जब वारिस राजनीति में बेहतर नतीजे नहीं दे पाता है। आज अगर राहुल गांधी वंशवादी चेहरों में खलनायक के तौर पर देखे जा रहे हैं तो आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी को नायक की तरह देखा जा रहा है। जगनमोहन रेड्डी को लेकर आम जनता में यही सहानुभूति थी कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को वाईएसआर रेड्डी के निधन के बाद उनके बेटे को ही सत्ता सौंपनी थी। जगनमोहन रेड्डी जब चुनाव में जलवा दिखा चुके हैं तो उनकी वंशवादी दृष्टिकोण से आलोचना नहीं हो रही है।

आंकड़ों की बात करें तो उत्तर में गांधी-नेहरू, बादल, चौटाला, हुड्डा, पासवान, यादव और शेख से लेकर दक्षिण में देवगौड़ा और करुणानिधि की संतानों तक 30 से ज्यादा वंशवादी परिवारों ने अपना कब्जा जमा रखा है। जब तक पार्टी की बड़ी हार नहीं होती है तब तक इसे लेकर चुप्पी ही बरती जाती है। जब किसी खास नेता की संतान राजनीति में आने लायक हो जाती है, तब उसकी पार्टी में अचानक युवा नेतृत्व को जगह देने का हंगामा बरपाया जाता है। राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव या तेजस्वी यादव हों सारे मामलों में ऐसा ही देखा गया। नेता की संतान को स्वीकृति मिल जाने के साथ ही पार्टी का युवा नेतृत्व मुकम्मल मान लिया जाता है।

जाति भेद और जेंडर भेद की तरह ही वंशवाद को भारतीय परंपरा का हिस्सा माना जाता रहा है। औपनिवेशिक गुलामी से आजादी के साथ आधुनिक भारत का इतिहास आगे बढ़ता है। 15 अगस्त 1947 को आजाद हो जाने के बाद या 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हो जाने के बाद बदली तारीखों से क्या सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव भी आया? लोकतंत्र में अलग-अलग पार्टियों का एजंडा क्या रहा। क्या ये दल सिर्फ विचारधारा और नीतियों के बल पर आगे बढ़े?

जाहिर सी बात है कि अलग राजनीतिक और नीतिगत विचारधाराओं के कारण ही अलग तरह के दलों का निर्माण होता है। यानी सारे दल एक नहीं हो सकते। अगर भाकपा से अलग होकर माकपा और कांग्रेस से अलग होकर राकांपा बनी तो इसके पीछे खास विचारधारा थी। लेकिन आज हम विचारधारा को पीछे छोड़ इसका सरलीकरण करते हैं। वाम का गढ़ ढह जाने के बाद सलाह दी जाती रही है कि माकपा, भाकपा और भाकपा माले सभी वामपंथी दलों को एक हो जाना चाहिए। लेकिन जिन दलों का जन्म ही विचारधारा की बुनियाद पर हुआ, वे विपरीत विचारधारा के साथ एक कैसे हो सकते हैं? जनता के जनवाद और राष्ट्रीय जनवाद में अगर अंतर है तो फिर इन दलों के एक होने को कैसे जायज ठहराया जा सकता है जब इनका जन्म ही भिन्न विचारधाराओं से हुआ।
दिक्कत यही है कि भारतीय राजनीति में विचारधारा गौण हो चुकी है। एक पार्टी का गठन किसी खास विचारधारा के साथ होता है और जल्दी ही वह व्यक्ति आधारित पार्टी बन जाती है और तय हो जाता है कि पार्टी के आगे का नेतृत्व उस व्यक्ति की संतान को ही मिलेगा।

नब्बे के दशक से कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ एक वैचारिकी का निर्माण होना शुरू हुआ था। इसमें वाम के साथ समाजवादी आंदोलन की धारा से निकले नेता भी थे। कांग्रेस की वैचारिकी के खिलाफ बनी जमीन पर ही चौधरी चरण सिंह, देवीलाल से लेकर मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और एचडी देवगौड़ा जैसे नेता निकले। लेकिन जल्द ही ये क्षेत्रीय क्षत्रप कहलाए जाने लगे। उत्तर भारत में आज कोई ऐसी पार्टी नहीं है जो वैचारिक आधार पर क्षेत्रीय एजंडे के साथ चल रही है। ये सारे दल मूलत: जातिवादी हो गए हैं। जातीय अस्मिता में भी मुखिया की संतान ही मुखिया होती है। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम एक खास वैचारिकी से उपजे नेता थे और उनकी राजनीतिक विरासत मायावती को मिली। लेकिन सुश्री मायावती ने अपनी राजनीतिक विरासत के लिए विचारधारा नहीं अपना वंश देखा। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही बसपा अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है। इस घोर संकट के समय में भी पार्टी और विचारधारा की जगह बसपा प्रमुख ने अपने परिवार को जगह दी। एक समय बिहार में अपनी विचारधारा के कारण राष्टÑीय जनता दल की तूती बोेलती थी। लेकिन आज यह चाचा-भतीजी और भाई-भाई की लड़ाई के कारण जाना जाता है। लालू प्रसाद के राजनीतिक परिदृश्य से दूर होते ही चुनावों में राजद को जनता ने नकार दिया क्योंकि पार्टी को विरासत में नेतृत्व नहीं संतान मिली थी, जिन्हें नेता बनाने की मेहनत भी करनी थी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की विरासत भी वारिसों के दंगल में धूल चाट चुकी है।

आज राजनीति में वंश और जाति के सिवा विकल्प ही क्या रह जाता है? वर्तमान स्थिति में कांग्रेस यही जाप करती रही कि भाजपा ने हमारी सारी नीतियां नाम बदल कर अपने नाम करवा लीं। इसका मतलब यह है कि भाजपा की नीति और कांग्रेस की नीति में कोई फर्क नहीं है। अगर नीतियों में कोई फर्क ही नहीं है तो फिर कांग्रेस की वापसी का मतलब क्या रह जाता है? अब नीति नहीं है तो फिर नाम का ही आसरा होगा।

इस दौर की खासियत यह है कि  राष्ट्रवाद। और हिंदुत्व के नारों के बीच क्षेत्रीय क्षत्रपों के सिर पर कोई छाता नहीं बचा है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान क्षेत्रीय पहचानों पर भारी पड़ रही है।  राष्ट्रवाद। के सोख्ते ने छोटे दलों को खुद में समा लिया है। एक देश…एक कर से लेकर एक नेता तक की अवधारणा को बल मिला है। गांव-कस्बा-शहर हो या आदिवासी समुदाय सबको एक  राष्ट्रवादी चौखटे में लाने की कोशिश। कांग्रेस को भी समझ नहीं आ रहा है कि इस हालात का मुकाबला कैसे किया जाए। सोनिया गांधी और राहुल गांधी नवउदारवादी भाषा में सवाल उठाते हुए खुद ही दिग्भ्रमित दिखते हैं। जब उदारवादी चेहरा ही खत्म हो चुका है तो आपके नवउदारवादी भाषणों के लिए जगह कहां बनेगी।

वंश और जाति के बाद राष्ट्रवाद। इस राष्ट्रवाद का विकल्प क्या होगा? जाहिर सी बात है कि विकल्प दिखेगा वैकल्पिक नीतियों से। अगर नीति बदलेगी तो स्वाभाविक रूप से नेतृत्व भी बदलेगा। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर दल में वंश की अमरबेल फैली हुई है। इसका तोड़ भी नीति के स्तर पर ही लाया जाता रहा है। दुखद यह है कि नई नीतियों के साथ पार्टी खड़ा करने वाला जननायक भी अपनी सत्ता सिर्फ अपने वंश को सौंपना चाहता है। इसके लिए वह उन नीतियों से समझौता कर बैठता है जिसके कारण जनता उसे सत्ता के शीर्ष पर भेजती है। विकल्प के रूप में लाया नेता भी अपने वारिस को ही आगे बढ़ाने का संकल्प ले बैठता है। फिलहाल तो भारतीय राजनीति में वंश के इस दंश से छुटकारे के आसार नहीं दिख रहे।