पिछले कुछ सालों से भीड़ की अराजकता के जिस तरह के मामले सामने आ रहे हैं, उन्हें हिंसा की आम घटनाओं की तरह नहीं देखा जा सकता है। ये ऐसी घटनाएं हैं जो हमारे लोकतंत्र और कानून के शासन पर सवालिया निशान लगाते हैं। स्वाभाविक ही इस मसले पर तीखे सवाल उठे कि क्या सरकारें इसकी गंभीरता की अनदेखी कर ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ावा नहीं दे रही हैं! सही है कि भीड़ की हिंसा के बाद मौजूदा कानूनों के तहत कार्रवाई हुई, लेकिन उसे ऐसी प्रवृत्ति पर लगाम लगाने से लेकर आरोपियों को सजा दिलाने तक के मामले में अपर्याप्त माना गया। इसलिए इस मसले पर अलग से कानून बनाने की मांग उठी। इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने साल भर पहले ही साफ लहजे में कहा था कि भीड़ की हिंसा को एक अलग अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और सरकार इसकी रोकथाम के लिए एक नया कानून बनाए। शायद इसी के मद्देनजर उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने सलाह दी है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए मौजूदा कानून प्रभावी नहीं है, इसलिए अलग से एक विशेष और सख्त कानून बनाया जाए।

आयोग के सुझाव के मुताबिक इस कानून का नाम उत्तर प्रदेश कॉम्बेटिंग ऑफ मॉब लिंचिंग एक्ट रखा जा सकता है। प्रस्तावित कानून के मसविदे में ड्यूटी में लापरवाही बरतने पर पुलिस अफसरों से लेकर जिलाधिकारी तक की जिम्मेदारी तय करने और दोषी पाए जाने पर सजा का प्रावधान करने का भी सुझाव दिया गया है। इसके अलावा, इसमें भीड़ के चेहरे में हिंसा करने वालों को सात साल से लेकर आजीवन कैद तक की सजा की व्यवस्था करने की बात शामिल की गई है। लेकिन इस तरह की हिंसा के मामलों में आमतौर पर पीड़ित और उसके परिवार के सामने पैदा हालात पर गौर नहीं किया जाता है। इस लिहाज से देखें तो उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने प्रस्तावित कानून में भीड़ की हिंसा के शिकार व्यक्ति के परिवार और गंभीर रूप से घायलों के साथ ही संपत्ति नुकसान के लिए भी मुआवजे की व्यवस्था करने का सुझाव दिया है। ऐसी घटनाएं फिर नहीं हों, इसके लिए भी पीड़ित व्यक्ति और उसके परिवार के पुनर्वास और पूरी सुरक्षा के इंतजाम किए जाने का भी प्रावधान करने की बात कही गई है।

गौरतलब है कि गोरक्षकों और भीड़ की हिंसा और किसी की हत्या कर देने के मसले पर सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि कोई भी नागरिक अपने हाथ में कानून नहीं ले सकता। यह राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि वे कानून-व्यवस्था बनाए रखें। अदालत ने साफतौर पर कहा था कि लोकतंत्र में भीड़तंत्र की इजाजत नहीं दी जा सकती। हालांकि यह खुद सरकारों के लिए अपनी साख का सवाल है कि वे अपने दायरे में इस तरह की अराजकता और हिंसा पर पूरी तरह लगाम लगाएं, जिससे कानून-व्यवस्था की उपस्थिति साफ दिखे। यों भी किसी राजनीतिक पक्ष के नफा-नुकसान का मामला मान कर भी लंबे समय तक इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती थी। लेकिन अफसोस की बात यह है कि कुछ राजनीतिकों की ओर से की गई बयानबाजियों की वजह से स्थानीय स्तर पर कुछ अराजक तत्त्वों को शह मिली और देश के अलग-अलग हिस्सों से गोरक्षा या फिर कोई खास नारा लगाने के नाम पर भीड़ की हिंसा और किसी हत्या के अनेक मामले सामने आए। इससे देश की छवि भी बुरी तरह प्रभावित हुई। इसलिए भीड़ की हिंसा पर रोक लगाने और इसके दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की कानूनी व्यवस्था की जरूरत तत्काल महसूस की जा रही थी। इस लिहाज से देखें तो उत्तर प्रदेश विधि आयोग की पहल स्वागतयोग्य है।