अगले सात-आठ साल में भारत चीन को पछाड़ कर दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश हो जाएगा। हाल में संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक आबादी पर जो रिपोर्ट प्रकाशित की है, उसमें कहा गया है कि 2027 तक भारत की आबादी दुनिया में सर्वाधिक होकर डेढ़ सौ करोड़ के पार पहुंच जाएगी। अभी भारत की आबादी एक सौ सैंतीस करोड़ है, और चीन की एक सौ तियालीस करोड़। रिपोर्ट अनुसार पूरी दुनिया की आबादी, जो अभी साढ़े सात अरब है, अगले तीन दशकों यानी 2050 तक बढ़ कर साढ़े नौ अरब से भी ज्यादा हो जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट बताती है कि 2010 से लेकर 2019 के बीच भारत की आबादी 1.2 फीसद की सालाना दर से बढ़ी है। जबकि इस दौरान चीन की जनसंख्या वृद्धि दर 0.5 फीसद ही रही। भारत में एक महिला औसतन 2.3 बच्चों को जन्म दे रही है। हालांकि इस जन्म औसत में पिछले पांच दशक में काफी सुधार आया है। 1969 में यह दर 5.6 थी। यदि वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो यह आंकड़ा अभी ढाई फीसद है। यदि औसत आयु की बात करें तो 2019 में जीवन प्रत्याशा उनहत्तर साल है जो 1969 में मात्र सैंतालीस साल थी। वर्तमान में जापान के लोगों की औसत आयु चौरासी साल है जो दुनिया में सबसे ज्यादा है।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आधी से ज्यादा जनसंख्या वृद्धि नौ देशों में होगी। इनमें भारत, नाइजीरिया, पाकिस्तान, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आॅफ कांगो, इथियोपिया, तंजानिया, इंडोनेशिया, मिस्र और अमेरिका हैं। अन्य सभी देशों की तुलना में भारत को जनसंख्या वृद्धि की समस्या के भीषण रूप का सामना करना होगा।

रिपोर्ट के मुताबिक भारत की आबादी आने वाले कई वर्षों तक बढ़ती रहेगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि बढ़ती आबादी किस तरह से नई-नई चुनौतियां खड़ी कर रही है। आजादी के वक्त भारत की जनसंख्या तैंतीस करोड़ थी, जो पिछले सात दशक में चार गुना से अधिक बढ़ गई है। परिवार नियोजन के आधे-अधूरे कार्यक्रमों, अशिक्षा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के अभाव, अंधविश्वास और विकासात्मक असंतुलन के चलते आबादी तेजी से बढ़ी है। निश्चित रूप से सात साल बाद जब भारत दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश होगा तो भारत के समक्ष वर्तमान में दिखाई दे रही जनसंख्या की चुनौतियां और अधिक गंभीर रूप में दिखाई देंगी। दुनिया की कुल जनसंख्या में भारत की हिस्सेदारी करीब अठारह फीसद हो गई है, जबकि पृथ्वी के धरातल का मात्र 2.4 फीसद हिस्सा भारत के पास है। चार फीसद जल संसाधन है। जबकि विश्व में बीमारियों का जितना बोझ है, उसका बीस फीसद बोझ अकेले भारत पर है।

भारत आज जिन गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है, उनका बड़ा कारण तेजी से बढ़ती आबादी ही है। हालांकि हमारे नीति-निर्माताओं ने तीन-चार दशक पहले ही जनसंख्या विस्फोट से उत्पन्न खतरों को भांप लिया था। इस समस्या से निपटने के लिए अनेक योजनाएं भी बनीं, लेकिन ये सभी योजनाएं आबादी नियंत्रण के लक्ष्य को हासिल कर पाने में नाकाम रहीं। हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में दावा किया गया है कि अगले दो दशक में भारत में जनसंख्या वृद्धि दर में तेजी से गिरावट आएगी। सर्वेक्षण में विभिन्न अध्ययनों के विश्लेषण के आधार पर कहा गया है कि देश में शून्य से 19 आयु वर्ग की आबादी अपने चरम पर पहुंच चुकी है और अब इसमें स्थिरता देखी जाएगी। इसकी वजह देश भर में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) में तेजी से गिरावट को माना गया है। नौ राज्यों, जिनमें दक्षिणी राज्यों, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से काफी नीचे है। इसके अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे घनी आबादी वाले राज्यों में प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से ऊपर है, लेकिन पहले की तुलना में यह तेजी से घट रही है। प्रतिस्थापन दर का मतलब उस दर से है, जब किसी देश की आबादी में कोई वृद्धि नहीं होती है। इसका आशय है कि जितने लोगों की मृत्यु होती है, लगभग उतने ही लोगों का जन्म होता है। ऐसी स्थिति को प्रतिस्थापन दर शून्य माना जाता है।

पिछले दो दशकों में भारत ने काफी तरक्की की है और यह विश्व की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था बन गया, लेकिन इस बात का बहुत प्रतिकूल प्रभाव भी देखने को मिला। मसलन, अंतरराज्यीय असमानताएं पहले की तुलना में ज्यादा बढ़ गर्इं। दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि से बेरोजगारी, स्वास्थ्य, परिवार, गरीबी, भुखमरी और पोषण से संबंधित कई चुनौतियां उत्पन्न हो रही हैं। हालांकि इन समस्याओं का विश्व के प्राय: सभी देशों को सामना करना पड़ रहा है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। भारत में अभी भी जागरूकता और शिक्षा की कमी है। लोग जनसंख्या की भयावहता को समझ नहीं पा रहे हैं। आबादी का विस्फोट किसी भी देश के आर्थिक विकास को भी प्रभावित कर सकता है। जनसंख्या के लगातार बढ़ने से कई देशों में गरीबी बढ़ रही है। लोग सीमित संसाधनों और पूरक आहार के तहत जीने के लिए बाध्य हैं। भारत सहित कई देशों में आबादी के बोझ ने अनेक गंभीर संकटों को जन्म दिया है। खाद्यान्न, जल संकट, प्रदूषण जैसी समस्याएं बढ़ती जनसंख्या की ही देन हैं। चिंताजनक बात यह है कि लोगों की संख्या तो प्रतिदिन बढ़ रही है, लेकिन धरती का क्षेत्रफल नहीं बढ़ सकता। संसाधन तेजी से सीमित होते जा रहे हैं।

भारत में जनसंख्या वृद्धि का प्रमुख कारण गरीबी है। भारतीय समाज में इसका एक बड़ा कारण कम उम्र में विवाह होना भी है। कानून बनने के बाद बाल विवाहों की संख्या में तो कुछ कमी तो अवश्य आई है, लेकिन अभी तक पर्याप्त सुधार नहीं हुआ है। इसके अलावा, भारतीय समाज में लड़के की चाहत भी जनसंख्या वृद्धि के लिए काफी कुछ जिम्मेदार है। सरकार द्वारा चलाया जा रहा परिवार नियोजन (अब परिवार कल्याण) कार्यक्रम अभी भी जनता का कार्यक्रम नहीं बन पाया है। इसे अभी भी सरकारी कार्यक्रम से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता।

यदि हमें देश को जनसंख्या विस्फोट से बचाना है तो ऐसी योजनाएं बनानी होंगी जो देश के आम लोगों को आर्थिक रूप से संपन्न बना सकें। साथ ही साक्षरता के लिए भी प्रयास करना होगा, जिससे शिक्षा का प्रकाश सब तक पहुंच सके। परिवार कल्याण कार्यक्रम में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। ऐसी नीतियां भी बनानी होंगी जिनसे जनता स्वयं इसमें रुचि ले। इमरजंसी के दौरान जिस तरह जनसंख्या नियंत्रण के प्रयास किए गए थे, वे किसी से छिपे नहीं हैं। उस समय सरकार के इस प्रयास के विरोध में जनता जबरदस्त गुस्से में थी और इसका खमियाजा सरकार को उठाना पड़ा था। इसलिए यह स्पष्ट है कि यदि जनसंख्या नियंत्रण की नीतियों और जनअवधारणों के बीच असंतुलन और संवादहीनता की स्थिति कायम रहेगी तो बेहतर परिणाम सामने नहीं आएंगे। यह

दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि पिछले पचास वर्षों में सरकार और विभिन्न सामाजिक संगठन जनता के साथ एक ऐसा संवाद स्थापित करने में नाकाम रहे हैं जिससे कि इस समस्या का स्थायी समाधान निकल सके। मुख्य चिंता जनसंख्या को स्थिर करना है। निश्चित रूप से भारत में जनसंख्या वृद्धि को रोकना एक कठिन चुनौती है, लेकिन यह कोई असंभव काम भी नहीं है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सब इस समस्या पर गंभीरता के साथ पुनर्विचार करें, ताकि भविष्य में बढ़ती आबादी के बोझ से होने वाली समस्याओं से छुटकारा मिल सके।