अब नीतीश को अपना आका समझता है लालू का ये 'जिन्न', चुनाव में RJD को दे गया दगा
इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया कि बिहार में बीजेपी नीतीश के बगैर और नीतीश बीजेपी के बगैर नहीं रह सकते हैं.
- News18 Bihar
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बिहार में लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) सहित पूरा महागठबंधन पस्त है. वहीं लालू यादव के राजनीतिक जीवन में उनकी पार्टी के शून्य पर आने के बाद यह सवाल उठने लगे हैं कि कभी बिहार सहित केन्द्र में सत्ता की धुरी माने जाने वाले लालू प्रसाद का लालू फैक्टर खत्म हो गया और क्या अब नीतीश कुमार ही बिहार में एकमात्र फैक्टर बनकर रह गए हैं. लेकिन इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया कि बिहार में बीजेपी नीतीश के बगैर और नीतीश बीजेपी के बगैर नहीं रह सकते हैं.
2019 का चुनाव परिणामः एनडीए- 352 सीट, अकेले बीजेपी- 303 सीट, कांग्रेस- महज 52 सीट पर सिमट गई. जबकि बिहार की 40 सीट की बात करें तो एनडीए- 39 सीट, महागठबंधन- महज एक, आरजेडी- 0 सीट.
23 मई को जब लोकसभा के ये चुनाव परिणाम आए तो हर कोई सकते में आ गया कि क्या ऐसा भी हो सकता है. बिहार में तो इस रिजल्ट के आते ही आरजेडी सहित पूरा महागठबंधन अवाक रह गया. यह उस बिहार का चुनाव परिणाम था, जहां के हर चुनाव में हमेशा से इन दो ही फैक्टरों ने काम किया, एक लालू फैक्टर तो दूसरा नीतीश फैक्टर. चाहे वह साथ रहा तो भी और साथ नहीं रहा तो भी.
लालू यादव (File Photo)
इस बार भी दोनों आमने सामने थे. लेकिन इसमें नीतीश फैक्टर तो जमकर चला लेकिन लालू फैक्टर पर सवालिया निशान लग गया कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि लालू का नाम कहीं नहीं चला. उनका बनाया एम वाई समीकरण भी दरक गया. खुद उनकी ही पार्टी के नेता और प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी मानते हैं कि लालू यादव का अगड़ा पिछड़ा, गरीब गुरबा, कुछ नहीं चल पाया. पूरे चुनाव में राष्ट्रवाद के मुद्दे ने इन तमाम मुद्दों को उठने ही नहीं दिया. लेकिन फिर वे कहते है कि लोकसभा में लालू फैक्टर नहीं चला तो क्या हुआ, विधानसभा चुनाव में जरूर चलेगा.
लेकिन जेडीयू चुनाव के परिणाम से बेहद उत्साहित है. पार्टी के प्रवक्ता राजीव रंजन का कहना है कि 2014 में आरजेडी, जेडीयू अलग-अलग रहकर लोकसभा चुनाव लड़े, उसका परिणाम क्या, उसे देखिए और जब 2015 में नीतीश, लालू के साथ मिलकर चुनाव लड़े तो उसका परिणाम कुछ और ही रहा.
2019 के चुनाव परिणाम ने यह साफ कर दिया कि नीतीश कुमार जिधर रहेंगे, सिक्का उधर का ही चलेगा. 2014 के चुनाव में एनडीए को 31 सीटें मिली थी लेकिन वोट 38.80 प्रतिशत ही आए थे. जबकि आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू को मिलाकर 44 प्रतिशत वोट आए थे. लेकिन आरजेडी कांग्रेस के एक साथ और जेडीयू के अलग चुनाव लड़ने से पार्टियों के बीच वोटों का बिखराव हुआ. जिससे एनडीए को 38.80 प्रतिशत वोट से 31 सीटें मिल गई. इसमें अकेले जेडीयू को 15.80 प्रतिशत वोट आए थे.
इस बार बीजेपी और जेडीयू साथ रहे. जिसका नतीजा यह हुआ कि एनडीए को 53.25 प्रतिशत वोट मिले. जबकि महागठबंधन की सभी पार्टियों को मिलाकर 26 प्रतिशत. बिहार में बीजेपी का 30 प्रतिशत के आसपास वोट बैंक है. जबकि जेडीयू का 16 प्रतिशत और एलजेपी का 5 से 6 प्रतिशत. जेडीयू के 16 प्रतिशत में वे अगड़ा पिछड़ा, गरीब गुरबा (EBC- यानी आर्थिक रूप से अति पिछड़ी जातियां) हैं, जिन्हें कभी लालू ने जिन्न का नाम दिया था. अब यही जिन्न नीतीश कुमार के साथ दिख रहा है.
लेकिन अभी भी कुछ राजनीतिक समीक्षक यह मानते हैं कि लालू फैक्टर पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ. आरजेडी को वोट मिले लेकिन कम मिले. ऐसे में यह मानना जल्दबाजी होगी कि लालू फैक्टर खत्म हो गया है क्योंकि एम वाई का वोट मिला है. वह भी कम मिला है. लालू यादव का इस चुनाव में न होना भी एक बड़ा कारण बना.
आरजेडी फिलहाल मुश्किल में है. पार्टी की जबरदस्त हार ने उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं के मनोबल को हिलाकर रख दिया है. इसी मनोबल पर इस समय एनडीए नेता यह कहकर चोट किए जा रहे हैं कि आरजेडी के कई विधायक उनके संपर्क में हैं. ऐसे में आरजेडी और तेजस्वी के सामने अपनी पार्टी को एकजुट रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी.
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