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आंध्र प्रदेश में इस बार जगन मोहन रेड्डी का जादू चल गया है। रुझानों के अनुसार उनकी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस यहां जीत हासिल करती हुई दिख रही है। यहां 175 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए हैं। वाईएसआर 150 सीटों से आगे चल रही है। जबकि टीडीपी महज 25 सीटों से आगे है।
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वहीं वाईएसआर कांग्रेस के नेता उम्मारेड्डी वेंकटेशवरलु का कहना है कि 30 मई को जगन मोहन रेड्डी राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे।
राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने हार स्वीकार कर ली है। वह शाम तक इस्तीफा देंगे।
अगर 2014 की बात करें तो तब चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी सत्ता में आई थी। यहां 2014 में हुए चुनाव के बाद टीडीपी के हिस्से में 102 सीटें आई थीं। वाईएसआर कांग्रेस को 67 सीट, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 4 सीट, नवोदयम को एक और एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार को मिली थी।
कौन थीं मुख्य पार्टियां?
मुख्य पार्टियों में टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस थीं। इस बार चुनावों में तेलुगु फिल्मों के अभिनेता पवन कल्याण की जनता सेना पार्टी (जेएसपी) भी मैदान में उतरी थी। राज्य में भाजपा और कांग्रेस ने भी सरकार बनाने के लिए भरपूर कोशिश की। लेकिन लोगों का झुकाव स्थानीय पार्टियों की ओर अधिक रहा।
2014 के राजनीतिक समीकरण?
आंध्र प्रदेश में इस बार स्थिति पिछले चुनाव से काफी अलग है। 2014 में टीजडीपी और भाजपा के गठबंध की सरकार थी। इस गठबंधन को जेएसपी ने भी पूरा समर्थन दिया था। हालांकि उस वक्त जेएसपी ने किसी सीट पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे। इस बार ये पार्टी किसी को भी नुकसान पहुंचा सकती है।
क्या अलग था 2019 में?
इस बार टीडीपी और भाजपा राजनीतिक संबंध तोड़कर मैदान में उतरीं। यानि इनका गठबंधन नहीं है। जेएसपी- बसपा, सीपीआई और सीपीएम के साथ गठबंधन करके पहली बार चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस भी यहां अकेले ही चुनाव लड़ रही है। वाईएसआर कांग्रेस की स्थिति पहले से काफी मजबूत हुई।
पार्टी के प्रमुख जगन मोहन रेड्डी ने जनता के लिए 'प्रजा दरबार' जैसी नई शुरुआत की। जहां उन्होंने किसानों, छात्रों और ग्रामीणों की परेशानियों को सुना।
वहीं रेड्डी का ये भी कहना है कि अगर उनकी विशेष राज्य के दर्जे वाली बात मान ली गई, तो उनकी पार्टी भाजपा के साथ गठबंधन कर सकती है।
कहां कमजोर हुई टीडीपी?
टीडीपी ने राज्य में किसानों के लिए बहुत सी योजनाएं शुरू कीं लेकिन बावजूद इसके राज्य के किसान खुश नहीं हैं। यहां स्कूल तो हैं लेकिन उनमें भी कई तरह की परेशानियां हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक शिक्षकों की ड्यूटी कई तरह के सर्वे में लगा दी जाती है। जिसके कारण छात्रों को शैक्षणिक वर्ष में 30-40 दिनों का नुकसान होता है। शिक्षकों की इन ड्यूटी के चलते उनकी पढ़ाई प्रभावित होती है। इसके अलावा नायडू के रहते हुए राज्य को विशेष दर्जा नहीं मिल पाया है, जिसका असर इस बार उनकी सीटों पर पड़ सकता है। वहीं राजधानी अमरावती में अस्थायी विधानसभा और सचिवालय के अलावा किसी और चीज का निर्माण नहीं हुआ है। कई विकास योजनाएं फंड की कमी के कारण अटकी हुई हैं।
क्यों जरूरी है विशेष राज्य का दर्जा?
आंध्र प्रदेश के लिए विशेष दर्जे की मांग ना केवल वहां की जनता बल्कि राजनीतिक पार्टियां भी करती आ रही हैं। चाहे फिर 2014 में भाजपा और टीडीपी का गठबंधन हो या फिर 2019 में रेड्डी द्वारा गठबंधन की बात करना। दोनों ही पार्टियों की गठबंधन के लिए मुख्य शर्त राज्य के लिए विशेष दर्जे की मांग ही रही है। इन पार्टियों का कहना है कि अगर आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा मिल जाता है, तो इससे उन्हें केंद्र की ओर से अधिक फंड मिलेगा। जिसका इस्तेमाल राजधानी के विकास के अलावा अन्य विकास योजनाओं में भी किया जा सकेगा।