आरएसएस ने महात्मा गांधी को दिल से स्वीकार किया है?

  • श्रीकांत बंगाले
  • बीबीसी संवाददाता
महात्मा गांधी

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हाल ही में साध्वी प्रज्ञा सिंह ने कहा कि "नाथूराम गोडसे देशभक्त थे, देशभक्त हैं और देशभक्त रहेंगे. उन्हें आतंकवादी कहने वालों को अपने गिरेबां में झांकने की ज़रूरत है और चुनावों में इन लोगों को हम करारा जवाब देंगे."

वे भोपाल लोकसभा क्षेत्र से भाजपा की उम्मीदवार हैं.

इस बयान के बाद बीजेपी ने कहा है कि इस बयान से वो सहमत नहीं है और कहा कि साध्वी को माफ़ी मांगनी होगी. उसके बाद साध्वी ने माफ़ी भी मांगी.

एक ओर, बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक आरएसएस गांधी का रोज़ नाम लेते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो गांधी की विचारधारा को ध्यान में रखकर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की.

लेकिन क्या आरएसएस ने सचमुच गांधी को स्वीकार कर लिया है?

'अपनी सुविधा से किया स्वीकार'

वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले कहते हैं कि आरएसएस ने गांधी को अपनी सुविधा के अनुसार स्वीकार किया है.

वो कहते हैं, "आरएसएस को जिस दिन गांधी प्रातःस्मरणीय होंगे, उस दिन संघ संघ नहीं रह जाएगा. इसलिए अगर संघ गांधी की विचारधारा को स्वीकार करेगा तो वो हिंदू राष्ट्र पर ज़ोर नहीं देगा. इसका एक मतलब ये भी है कि संघ केवल दिखाने के लिए गांधी का नाम लेता है.

नाथूराम गोडसे

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गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर शक था और उस पर प्रतिबंध भी लगाया गया था.

सरदार वल्लभभाई पटेल ने गुरु गोलवरकर को लिखे पत्र में, साफ़ तौर पर लिखा है कि गांधी की हत्या के लिए देश में जो ज़हरीला वातावरण बना है उसके लिए आरएसएस ज़िम्मेदार है."

उन्होंने आगे लिखा है, "संघ ने गांधी को केवल सुविधा के तौर पर स्वीकार किया है. क्योंकि उसे महसूस हो गया है कि गांधी की हत्या के बाद भी वो मरे नहीं."

लेकिन भाजपा ने प्रज्ञा सिंह ठाकुर जैसे आतंकवाद के आरोपी को टिकट देकर ये साबित कर दिया है कि वो गांधी पर भरोसा नहीं करती."

"प्रज्ञा सिंह गोडसे को देशभक्त कहती हैं. ये कोई अचानक प्रतिक्रिया नहीं है. यह आरएसएस की व्यापक साजिश का हिस्सा है. गोडसे को लेकर आरएसएस समय-समय पर राष्ट्रीय भावना टटोलता रहा है. गोडसे आतंकवदी नहीं हत्यारा है, यह चर्चा भी उसी साजिश का एक हिस्सा है. हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए संघ जो माहौल बना रहा है, ये भी उसी का हिस्सा है. इसलिए गोडसे संघ के लिए प्यारे हैं न कि गांधी."

'आलोचना करने वाले सबूत दें'

आरएसएस के पश्चिम क्षेत्र के प्रचार प्रमुख प्रमोद बापट कहते हैं कि आरएसएस की गांधी भक्ति झूठी है ये कहने वालों को इसका सबूत देना चाहिए.

वो कहते हैं, "आरएसएस की गांधी भक्ति झूठी है, आरएसएस को नाथूराम गोडसे प्यारे हैं, ऐसा कुछ लोग कहते रहे हैं. ऐसा कहने वाले सबूत नहीं देते. वो ये बात किस आधार पर कह रहे हैं, वे ये नहीं बताते."

"आरएसएस पर टिप्पणी ज़रूर करें लेकिन ये प्रमाणिक होना चाहिए."

महात्मा गांधी

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बापट कहते हैं, "आरएसएस को गांधी कितने प्यारे हैं, ये किसी को बताने की ज़रूरत नहीं है. आरएसएस के मन में गांधी के बारे में जो भावना है, वो किसी को दिखाने की ज़रूरत नहीं है. हमें जो लगता है उसी आधार पर समाज में काम करते हैं. और समाज इसे स्वीकार करता है, ये पर्याप्त है. हम समाज के लिए प्रतिबद्ध हैं.

ये पूछने पर कि क्या ऐसे बयान हिंदू राष्ट्र के निर्माण के मकसद से दिए जा रहे हैं, बापट ने कहा, "नाथूराम गोडसे के बारे में ये बयान राजनीतिक दलों के कुछ लोग कर रहे हैं. संघ नहीं कह रहा है. इसका जवाब उन्हीं लोगों से लेना चाहिए."

गांधी की हत्या और आरएसएस

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महात्मा गांधी की हत्या के तार आरएसएस से भी जोड़े जाते रहे हैं. नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद से प्रकाशित गांधी के निजी सचिव रहे प्यारेलाल नैयर ने अपनी किताब 'महात्मा गांधी: लास्ट फ़ेज' (पृष्ठ संख्या-70) में लिखा है, ''आरएसएस के सदस्यों को कुछ स्थानों पर पहले से निर्देश था कि वो शुक्रवार को अच्छी ख़बर के लिए रेडियो खोलकर रखें. इसके साथ ही कई जगहों पर आरएसएस के सदस्यों ने मिठाई भी बांटी थी.''

गांधी की हत्या के दो दशक बाद आरएसएस के मुखपत्र 'ऑर्गेनाइज़र' ने 11 जनवरी 1970 के संपादकीय में लिखा था, ''नेहरू के पाकिस्तान समर्थक होने और गांधी जी के अनशन पर जाने से लोगों में भारी नाराज़गी थी. ऐसे में नथूराम गोडसे लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, गांधी की हत्या जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति थी.''

गांधी की हत्या से जुड़े कुछ और तथ्य सामने आने के बाद सरकार ने 22 मार्च 1965 को एक जाँच आयोग का गठन किया. 21 नवंबर 1966 को इस जाँच आयोग की ज़िम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस जेएल कपूर को दी गई.

नाथूराम गोडसे

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कपूर आयोग की रिपोर्ट में समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और कमलादेवी चटोपाध्याय की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में उस बयान का ज़िक्र है जिसमें इन्होंने कहा था कि 'गांधी की हत्या के लिए कोई एक व्यक्ति ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बड़ी साज़िश और संगठन है'. इस संगठन में इन्होंने आरएसएस, हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग का नाम लिया था.

गांधी की अंत्येष्टि के ठीक बाद 31 जनवरी को कैबिनेट की बैठक बुलाई गई. इस बैठक में कैबिनेट के सीनियर मंत्री, बड़े अधिकारी और पुलिस के लोग शामिल थे. इसमें आरएसएस और हिन्दू महासभा को प्रतिबंधित करने का फ़ैसला लिया गया.

'आरएसएस अब गांधीवादी बन गया है'

नथुराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने 28 जनवरी, 1994 को फ्रंटलाइन को दिए इंटरव्यू में कहा था, ''हम सभी भाई आरएसएस में थे. नथूराम, दत्तात्रेय, मैं ख़ुद और गोविंद. आप कह सकते हैं कि हम अपने घर में नहीं, आरएसएस में पले-बढ़े हैं. आरएसएस हमारे लिए परिवार था. नथूराम आरएसएस में बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे. नथूराम ने अपने बयान में आरएसएस छोड़ने की बात कही थी. उन्होंने यह बयान इसलिए दिया था क्योंकि गोलवलकर और आरएसएस गांधी की हत्या के बाद मुश्किल में फँस जाते, लेकिन नथूराम ने आरएसएस नहीं छोड़ा था.''

इसी इंटरव्यू में गोपाल गोडसे से पूछा गया कि आडवाणी ने नथूराम के आरएसएस से संबंध को ख़ारिज किया है तो इसके जवाब में उन्होंने कहा, ''वो कायरतापूर्ण बात कर रहे हैं. आप यह कह सकते हैं कि आरएसएस ने कोई प्रस्ताव पास नहीं किया था कि 'जाओ और गांधी की हत्या कर दो', लेकिन आप नथूराम के आरएसएस से संबंधों को ख़ारिज नहीं कर सकते. हिन्दू महासभा ने ऐसा नहीं कहा. नथूराम राम ने बौद्धिक कार्यवाह रहते हुए 1944 में हिन्दू महासभा के लिए काम करना शुरू किया था.''

गोडसे

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हिन्दू महासभा के वर्तमान महासचिव मुन्ना कुमार शर्मा ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि ''आरएसएस अब गांधीवादी बन गया है. उन्हें अब गोडसे से दिक़्क़त होती है जबकि सच यह है कि गोडसे हमारे थे और हम ये बात मानते हैं, वे आरएसएस के भी थे, लेकिन वे अब नहीं मानते''. शर्मा कहते हैं कि तब आरएसएस और हिन्दू महासभा कोई अलग संगठन नहीं थे.

गांधी की हत्या के बाद पटेल को एक युवक ने पत्र लिखा, उसने खुद को आरएसएस का सदस्य बताया था, उसने लिखा कि आरएसएस से उसका मोहभंग हो गया है. पत्र में उसने लिखा कि ''आरएसएस ने पहले से ही कुछ जगहों पर अपने लोगों को कह दिया था कि अच्छी ख़बर आने वाली है, शुक्रवार को रेडियो खुला रखें. हत्या के बाद आरएसएस की शाखाओं में मिठाइयाँ बाँटी गईं''. (तुषार गांधी, लेट्स किल गांधी, पृष्ठ 138)

सितंबर 1948 में आरएसएस के तब के प्रमुख माधव सदाशिव गोलवलकर ने पटेल को पत्र लिख आरएसएस पर पाबंदी लगाने का विरोध किया था.

महात्मा गांधी और सरदार पटेल

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सरदार पटेल ने गोलवलकर को 11 सितंबर 1948 को भेजे जवाब में कहा, ''आरएसएस ने हिन्दू समाज की सेवा की है, लेकिन आपत्ति इस बात पर है कि आरएसएस बदले की भावना से मुसलमानों पर हमले करता है. आपके हर भाषण में सांप्रदायिक ज़हर भरा रहता है. इसका नतीजा यह हुआ कि देश को गांधी का बलिदान देना पड़ा. गांधी की हत्या के बाद आरएसएस के लोगों ने ख़ुशियां मनाईं और मिठाई बाँटीं. ऐसे में सरकार के लिए आरएसएस को बैन करना ज़रूरी हो गया था."

16 अगस्त 1949 को पटेल से गोलवलकर ने मुलाक़ात की. इस मुलाक़ात के बाद पटेल ने नेहरू को लिखा, ''मैंने गोलवलकर से बताया है कि उन्होंने क्या ग़लती की है जो नहीं होनी चाहिए थी. मैंने उनसे साफ़ कहा है कि वो विनाशकारी तरीक़ों से बाज़ आएँ और रचनात्मक भूमिका अदा करें.''

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