बचपन में हम सबने कहानी पढ़ी है। अक्सर कहानी में होता था एक गरीब ब्राह्मण था। क्या कहानी में कभी पढ़ा है कि एक गरीब दलित था, कुम्हार था या मल्लाह था। उसके लिए कहानी नहीं बनती क्योंकि वह हकीकत है। ब्राह्मणों की गरीबी गल्प थी। हमसे उम्मीद की जा रही कि मध्यरात्रि लूट पर मुहर लगा दें…। सामान्य वर्ग के गरीब तबकों को दस फीसद आर्थिक आरक्षण के प्रस्ताव वाला विधेयक पास होने के वक्त राष्टÑीय जनता दल के नेता ने संसद में ये बातें कहीं। राजद नेता कह रहे थे कि हम एकमात्र दल हैं जो खुलेआम इसका विरोध कर रहे हैं। उनकी बातों का इशारा सपा और बसपा की तरफ भी जा रहा था जिनका वजूद जातिगत आरक्षण की जमीनी लड़ाई लड़ने के कारण बना।

सवर्णों के आरक्षण पर सपा-बसपा के साथ आते ही सामाजिक न्याय का संदर्भ पूरी तरह से बदल गया। कुछ राजनीतिक दलों को छोड़ पूरी संसद साथ थी। बसपा तो इसके पहले भी ‘गरीब ब्राह्मणों’ के हित की बात करती आई है। ‘ब्राह्मणों’ पर उसकी सदाशयता सहित कई कारण कई बार उसे भाजपा के साथ जाने को मजबूर करते रहे हैं। लखनऊ में सपा और बसपा की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस होते ही दिल्ली हिल उठी। सारे राजनीतिक और सामाजिक विमर्श इस ओर मुड़ गए। विद्वानों ने ‘बुआ’ और ‘बबुआ’ के पीछे लगी तस्वीरों का महत्त्व समझाया। तस्वीर की ‘तस्वीर’ यह थी कि आंबेडकर के साथ लोहिया थे। सामाजिक न्याय के प्रवक्ताओं ने अपील की कि जातिगत आरक्षण को खत्म करवाने की दिशा में इनके अहम योगदान को भुला दिया जाए और आंबेडकर व लोहिया की तस्वीर साथ लाने के योगदान को ऐतिहासिक बनाया जाए। लोहिया और आंबेडकर अपने जीवन में साथ काम नहीं कर पाए तो क्या इनकी तस्वीरों को साथ लगाने और मीडिया में प्रसारित करवाने को सामाजिक न्याय के संदर्भ में ऐतिहासिक मान लिया जाए? क्या संसद के अंदर और बाहर के दोनों के साथ के ‘सामाजिक न्याय’ को इसी चश्मे से देखा जाए। देश की सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश की राजनीति महज राज्य की नहीं, केंद्र की भी राजनीति है। यहां मंडल कमीशन बनाम सामाजिक न्याय की लड़ाई के प्रतीक बने थे मुलायम सिंह यादव। मध्यवर्गीय जातियों को केंद्र की राजनीति में लाने में इनका योगदान अहम रहा है। दूसरी तरफ कांशीराम की ‘बहुजन’ राजनीति का प्रतीक बनीं मायावती। इस बहुजन में दलितों के साथ मुसलमानों को भी शामिल किया गया। इसके साथ ही ओबीसी में मुसलमानों को शामिल करने की रणनीति बनी। मुसलमानों को सबके केंद्र में रखा गया था।

उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का ‘अन्य’ भाजपा बनी। भाजपा की राजनीति के केंद्र में सवर्ण थे। ओबीसी, मुसलमान और दलित के समीकरण में कांग्रेस का जो घटाव था वह भाजपा के लिए जोड़ बन रहा था। उत्तर प्रदेश के ‘अन्य’ में कांग्रेस घटती गई और भाजपा उभरती गई। इसलिए आज उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरण में तीन खिलाड़ी सपा, बसपा और भाजपा हैं। दलित, ओबीसी, ब्राह्मण, ठाकुर और मुसलमानों के गठजोड़ों में जिस एक जमीनी विरोधाभास को नजरअंदाज किया जा रहा है, वह है जमीन यानी खेत का मुद्दा। आज उत्तर प्रदेश की ज्यादातर खेतिहर जमीनों पर मालिकाना हक किसका है? पिछले चार दशकों में सूबे की खेतिहर जमीनें सवर्णों से हस्तांतरित होकर मध्यवर्गीय जातियों तक पहुंचीं। इससे सबसे ज्यादा यादवों की शक्ति बढ़ी। अब खेत मालिकों के उलट खेतिहर मजदूरों की बात करें। ज्यादातर खेतिहर मजदूर दलित हैं। कारखाना मालिक और कारखाना मजदूरों के हित जिस तरह से एक नहीं होते उसी तरह से उत्तर प्रदेश जैसे अर्द्धसामंती समाज में खेत के मालिक और खेतिहर मजदूरों के हित एक नहीं हैं। पिछले सालों में दलितों और ओबीसी के हितों के बीच विरोधाभास बढ़ा है। इन सबके बीच मायावती, भाजपा के साथ मिलकर भी अपनी जगह बनाती रही हैं। इसलिए सपा और बसपा के गठबंधन के गणित को विरोधाभासों के संदर्भ में देखना होगा। सिर्फ लोहिया और आंबेडकर की तस्वीरें साथ लगाकर विरोधाभास को खत्म नहीं किया जा सकता। मायावती अपनी पहचान दलितों की राष्ट्रीय नेता के रूप में बनाने में कामयाब रही थीं। मायावती की इसी पहचान के बरक्स भाजपा ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग शुरू की थी। मायावती को दलित पहचान से कमतर कर जाटव पहचान तक रखने की कोशिश की गई। अन्य दलित जातियों की पहचानों को उभारा गया। इन पहचानों में विरोधाभास डालकर उन्हें ‘हिंदू’ पहचान देने की रणनीति बनाई गई। यही काम ओबीसी और यादव के बीच भी किया गया कि उन्हें हिंदू छतरी के नीचे लाया जाए। इस सोशल इंजीनिरिंग में जो हिंदू मतदाताओं का उत्पाद तैयार किया गया, जिसमें मुसलमान बेदखल था। प्रयोगशाला के उत्पाद पर भरोसा था, इसलिए पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी मुसलिम मतदाता को टिकट नहीं दिया गया। इसके साथ ‘अन्य’ को एक-दूसरे के खिलाफ कर अपने-अपने दायरे के विरोधाभास पैदा किए गए। नतीजा था कि किंगमेकर बनने का सपना देखने वाली बसपा शून्य पर थी।

राजा बनाने के रिमोट से लेकर शून्य तक के सफर का पाठ है सपा-बसपा गठबंधन। इसी शून्य से उबरने के लिए, अपना अस्तित्व बचाने के लिए उस बुनियादी विरोधाभास से समझौता किया गया जिसका जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं। इस समझौते को पहचान दी जा रही है सवर्णों के आरक्षण विरोधी की, दलित-ओबीसी एकता की, फुले-आंबेडकर-लोहिया के सपनों के कोलाज की। 2014 में शून्य के बाद अगले पाठ का अभ्यास तो कैराना से ही शुरू कर दिया गया गया था। ऐसी सद्भावना बनाई गई कि सपा-बसपा एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा नहीं कर रहे थे। कांग्रेस की अनुपस्थिति में ये दोनों दल साथ थे। नतीजा था कि भाजपा को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। अब इस पाठ का सवाल यह है कि विरोधाभासों को दरकिनार कर ओबीसी-दलित-मुसलमान की जो एकता बनाई गई है क्या वह वोट के रूप में भी फलीभूत होगी? पिछली बार मुसलमानों के पास संकट था कि किसके साथ जाएं और इस असमंजस में वे बंट गए। अब एकता के रंग में मुसलिम पहचान का भी शामिल होना क्या रंग लाएगा? यह वृहत्तर एकता चुनावी मैदान में कितनी मंजूर होगी यह तो वक्त ही बताएगा। इस विरोधाभासी एकता में सपा को उम्मीद है सूबे का राज संभालने की और बसपा प्रमुख इतनी सीटें चाहती हैं कि प्रधानमंत्री नहीं तो उपप्रधानमंत्री तक के लिए सीटों का गणित बन जाए। सपा और बसपा का यह सपना पूरा होने के लिए कांग्रेस की सीटों की संख्या का कम होना भी जरूरी है। उत्तर प्रदेश में गठबंधन तीन इकाइयों में बंट चुका है। कांग्रेस को बेदखल कर राज्य की राजनीति में समाजवादी और केंद्र की राजनीति में बहुजन का राज हो। इस गठबंधन के तीसरे पाठ में अभी तक नहीं बनने वाला वह तीसरा मोर्चा फिर से अपना राग छेड़े जाने की मांग भी कर रहा है। देश की राजनीति में विकल्प के तौर पर कांग्रेस के खिलाफ खड़े मोर्चे के रूप में भी इसकी पहचान बन सकती है। अपनी-अपनी संख्या कैसे बढ़ाएं, यही मई 2019 का पूरा कथ्य होगा। इसमें कांग्रेस की जीत दबाकर एक विकल्प बनाने का संदर्भ भी देखा जा सकता है। आज विरोधाभास चुनावी सीटों के लाभ के ‘गेस्ट हाउस’ में आराम फरमा रहा है। लोहिया और आंबेडकर की तस्वीरों का साथ, सीटों की बात बन पाएगी या नहीं, इसका जवाब भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी पाठशाला उत्तर प्रदेश से मिलने का इंतजार है।