हम अक्सर दूसरों के बारे में बात करते रहते हैं. हमारे आस पास क्या हो रहा है, क्या होना चाहिए. यह हमारे संवाद के कुछ सामान्य विषय होते हैं. हमारी जिंदगी से सीधे जुड़े विषय, उस पर प्रभाव डालने वाली चीज़ों पर हमारी नजर लगातार बनी रहती है. पिछले कुछ वर्षों में एक शब्द धीरे-धीरे धीरे हमारी जिंदगी पर हावी होता गया, अलर्ट/ सजग रहना.
जो कुछ भी घट रहा है, उसके बारे में जानने की इच्छा. खबरों के बारे में दिलचस्पी भी इसका एक सरल उदाहरण है. मीडिया के जितने माध्यम हमारे सामने उपस्थित हो रहे हैं, उन सबमें निरंतर और तेजी से बढ़ती रुचि भी इस बात को स्थापित करती है कि हम खूब सारा जानना चाहते हैं. हर चीज़ के बारे में जानना. हर समय जानने के लिए उत्सुक रहना.
यह हमारी जिंदगी में सूचना और तकनीक के बढ़ते प्रभाव का सीधा असर है. हम घड़ी की सुइयों की तरह भाग तो रहे हैं, लेकिन सिवाय उम्र घटाने के कुछ नहीं बढ़ा पा रहे हैं. हम सूचना को ही ज्ञान समझ बैठे हैं.इस सूचना के फेर में उलझने का ही असर है कि हम भीतर से निरंतर रिक्त होते जा रहे हैं. रिश्तो में बढ़ती उदासी, निराशा, अवसाद और शंका इसका ही परिणाम हैं. हमारे आस पास एक किस्म का रेगिस्तान बनता जा रहा है. कोमलता से कटे रिश्ते, समय की 'तपन' को जरा भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं.
कुछ दशक पहले की बात है. हमारा समाज कैसे आपसी सहयोग, तालमेल, आत्मीयता के सहारे बड़े बड़े संकट का सामना कर लेता था. इस समाज में भयंकर गरीबी, भूख, अकाल से लेकर बाढ़ तक का सामना किया है. भारतीय समाज हर तरह की आपदा से दो-चार होता रहा है. लेकिन उसने कभी आत्महत्या को नहीं चुना. क्योंकि उसने अपने भीतर से संबंध को काटा नहीं था. रिश्तों की कोमलता, ऊष्मा, साथ होने का साहस हमें बिखरने नहीं देता था. हमारे पास सूचनाएं कम थीं. देर, मुश्किल से आती थीं, लेकिन अंततः आ जाती थीं.
हम सूचनाओं से दूर थे. लेकिन भीतर से हमारा संबंध गहरा था. अब एकदम उल्टा हो गया. हम सूचनाओं से सराबोर हैं, लेकिन अंतर्मन से हमारा कनेक्शन कुछ कमजोर हो गया है. हमारी भावनाएं बेहद नाजुक, हर दूसरी चीज़ से घायल होने वाली हैं. भीतर से टूटे हुए संपर्क के कारण ही हमारी आत्मा निरंतर कमजोर हो रही है. उसे पोषण तो दूर, संबल भी नहीं मिल पा रहा. यही कारण है कि कुछ समय पहले तक एक साथ बैठे पति पत्नी, दोस्तों, परिजन में से कोई एक अचानक अकेले होते ही आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है.
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