सूफी का तसव्वुर, आशिक का खयाल मजाज लखनवी

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मजाज शायरों के खानदान से ताल्लुक रखते थे। उनकी बहन का निकाह आज के मशहूर शायर और फिल्मों के पटकथा लेखक जावेद अख्तर के पिता जांनिसार अख्तर के साथ हुआ था। मजाज ने शायरी के सफर का आगाज कॉलेज में पढ़ने के दौरान फनी बदायूंनी की शागिर्दी में की। प्रेम मजाज की शायरी का केंद्रीय तत्व रहा, जो बाद में दर्द में बदल गया।

मजाज को चाहने वालों की कमी नहीं थी। पर एक प्रेम प्रसंग ने उनकी जिंदगी में ऐसा तूफान ला दिया कि वे उससे आजीवन उबर न सके। 1929 के दशक में मजाज जिन दिनों आगरा के सेंट जान्स कालेज में पढ़ रहे थे, उनको जज्बी और मैकश अकबराबादी जैसे नामवर शायरों की सोहबत मिली।

वालिद की चाहत के मुताबिक वे इंजीनियर बनने के बजाए शायरी करने लगे। उनकी शुरुआती गजलों को फानी ने दुरुस्त किया। इसी दौरान उन्होंने व्याकरण सीखा। इसके बाद तो वह निखरते ही चले गए। जब वे आगरा से अलीगढ़ आए तो यहां वो सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार ज़ाफरी, सिब्ते हसन, जांनिसार अख्तर जैसे उर्दू के बड़े साहित्यकारों के संसर्ग में आए। इसके बाद उन्होंने अपना तखल्लुस बदलकर ‘मजाज’ कर दिया। उनकी शायरी के दो रंग हैं- एक इश्किया, दूसरा इंकलाब़ी। वे एक तरफ कहते हैं कि ‘तेरे माथे पे ये आंचल तो बहुत ही खूब...

आगरा तक तो मजाज इश्किया शायर थे, पर अलीगढ़ आते-आते इश्किया शिद्दत इंकलाब में तब्दील हो गई। वैसे भी वह दौर स्वाधीनता आंदोलन में आए तारीखी उबाल का था। देश के नामी कवि-शायर और फनकार इंकलाबी गीत गाने लगे थे। ऐसे माहौल में उन्होंने ‘रात और रेल’, ‘नजर’, ‘अलीगढ़’, ‘नजर खालिदा’, ‘अंधेरी रात का मुसाफिर’, ‘सरमायादारी’ जैसी बेजोड़ रचनाएं लिखीं। उसी दौरान मजाज आल इंडिया रेडियो की पत्रिका ‘आवाज’ के सहायक संपादक हो कर दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली में नाकाम इश्क के दर्द ने लखनऊ लौटा...

फिर देखते-देखते मजाज शराब में डूबते चले गए। एक बेपरवाह और अराजक जिंदगी जीते हुए 15 दिसंबर 1955 को दिमाग की नस फटने से उनका निधन हो गया। अभिव्यक्ति की बुलंदी और तरोताजगी से भरपूर उनकी शायरी पर आज भी उर्दू अदब को नाज है।

 

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