सुख और दुख: मानव के कर्मों का ही परिणाम है सुख और दुख

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सुख और दुख: मानव के कर्मों का ही परिणाम है सुख और दुख Urja happinessformula

कहते हैं कि मनुष्य सुख में प्रसन्न होता है जबकि दुख में रोता है। ऐसी स्थिति में जन्म के समय शिशु के रुदन को क्या कहेंगे? निश्चित ही उसे सुख नहीं कहा जाएगा, क्योंकि सुख या प्रसन्नता में आंखों का नम होना तो स्वाभाविक है, मगर इस प्रकार का क्रंदन नहीं। आखिर जन्म के समय शिशु के रोने का क्या कारण है? विज्ञान के अनुसार जन्म के समय शिशु का रोना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।

वहीं शिशु के रोने का एक कारण यह भी माना जाता है कि माता के गर्भ से बाहर आने के बाद उसे लगता है वह एक अनजानी जगह आ गया है और उसे यह संसार सुरक्षित नहीं लगता। इसीलिए वह रोता है और जब माता उसे सीने से लगा लेती है तो उसे विश्वास हो जाता है कि वह सुरक्षित है। इसीलिए मां की गोद शिशु के लिए सबसे सुरक्षित जगह मानी गई है।

वस्तुत: सुख-दुख जीवन के दो पक्ष हैं। शायद ही कोई मनुष्य ऐसा हो जिसने जीवन में कभी दुख का अनुभव न किया हो। वहीं कोई व्यक्ति ऐसा भी नहीं होगा जिसे जीवन में एक बार भी सुख न मिला हो। वास्तव में सुख-दुख जीवन की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं। दोनों मनुष्य को शक्ति, सहजता और शिक्षा देते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि न तो दुख में घबराना चाहिए और न सुख में इतराना चाहिए। सुख-दुख तो जीवन की ऊर्जा के आधार हैं। सुख से शांति, पवित्रता और शुभता का संचार होता है तो दुख से जीवन के आवश्यक सबक मिलते हैं।

फिर भी यह किसी विडंबना से कम नहीं कि मनुष्य जीवन में कभी भी कोई दुख नहीं चाहता। वह हमेशा सुखी रहना चाहता है और वह भी अपनी इच्छा या आवश्यकता के अनुसार। महाभारत में वेदव्यास कहते हैं कि सुख और दुख मानव के कर्मों के ही परिणाम हैं। इसीलिए परिणाम को सहजता से स्वीकार करने में ही बुद्धिमानी है। जो परिणाम को सहजता से स्वीकार कर लेता है, वह अनेक प्रकार की विसंगतियों और मनोविकारों से बच जाता है। इसी में जीवन के सुख का सूत्र निहित...

 

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