ओलंपिक पदक विजेताओं की तमाम चमकीली खबरों के बीच आप एक खबर यह भी पढ़ लें- मीराबाई चानू ने 150 ट्रक ड्राइवरों और खलासियों का सम्मान किया. दरअसल ये वे लोग हैं जिनकी वजह से ओलंपिक तक उनका सफ़र संभव हुआ. मीराबाई चानू के गांव नोंग्पोक काक्चिंग से इंफाल की स्पोर्ट्स एकैडमी 25 किलोमीटर दूर थी. उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि रोज़ अपने ख़र्च से वहां तक जा सकें. तो इसलिए वे रेत लेकर इंफाल जा रहे ट्रक वालों से लिफ़्ट लिया करती थीं. ये सिलसिला बरसों चला.
निश्चय ही यह सब होना चाहिए. इससे भी खिलाड़ियों का हौसला बढ़ता है. फिर यह भी सच है कि कोई पदक सिर्फ खिलाड़ी की मेधा और मेहनत से हासिल नहीं होता, उसके पीछे एक पूरी व्यवस्था होती है. ओलंपिक में इस बार भारतीय खिलाड़ी पांच पदक ला पाए तो इसलिए भी कि खेलों का बुनियादी ढांचा पहले से बेहतर है. मीराबाई चानू को प्रशिक्षण के लिए अमेरिका नहीं भेजा गया होता तब भी संभव है कि उन्हें पदक नहीं मिलता. यही बात दूसरे खिलाड़ियों और खेलों के बारे में कही जा सकती है.
जाहिर है, हमारा पूरा समाज खेल विरोधी है. हाल ही में अपने एक लेख में मनु जोसेफ़ ने बिल्कुल ठीक लिखा कि किसी भारतीय के लिए 50 मीटर दौड़ना भी मुश्किल है. लेकिन हमारा कुल रवैया क्या होता है? हम बस ओलंपिक की पदक तालिका में देश को आगे देखना चाहते हैं. हम बस अफ़सोस करते हैं कि एक अरब 35 करोड़ से ऊपर की आबादी के बावजूद हम ओलंपिक में 65वें नंबर पर हैं, यह नहीं सोचते कि यहां क्यों हैं? यह भी नहीं देखते कि मानव विकास के दूसरे मानकों में हम कहां हैं. भूख की तालिका में हमारी जगह कहां है, साधनों के मामले में हमारी सूची क्या है.
उधर बाज़ार ने अभी से अपने डैने फैलाने शुरू कर दिए हैं. वह ओलंपिक विजेता खिलाड़ियों को मुफ़्त पिज्जा और हवाई यात्राओं के प्रस्ताव देने लगा है. ख़तरा ये है कि ये खिलाड़ी फिर खेल भूलकर सितारे न बन जाएं. दूसरे देशों में खिलाड़ी एक ओलंपिक के बाद दूसरे ओलंपिक में अपना प्रदर्शन सुधारते पाए जाते हैं, जबकि अपने यहां खिलाड़ी एक बार चमक कर जैसे बुझ जाते हैं. यह खोखला उच्चमध्यवर्गीय उपभोक्ता समाज इनको खा जाता है. वह खेल नहीं खेलता, खिलाड़ियों से खेलता है.
इनको भी एक गॉलड़ मैडल देदोरे बाबा, तल्वे चाटने no1 हे ये पत्रकार
Pata tha aisa ghatiya post ravish Ka channel hi Likh saktaa hai.
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